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________________ ११२ १०३८.एमेव संजईण वि, विकडुभ-पलिमंथमाइया दोसा। कम्माईया य तहा, अविभिन्ने अविहिभिन्ने य॥ इसी प्रकार श्रमणियों के लिए भी विकटुभ और पलिमंथ आदि दोष होते हैं। अविभिन्न अथवा अविधिभिन्न प्रलंबग्रहण से हस्तकर्म आदि सविशेष दोष होते हैं। - १०३९.विहि-अविहीभिन्नम्मि य, समणीणं होतिमे उ छब्भंगा। पढमं दोहि अभिन्नं, अविहि-विही दव्व बिइ-तइए। १०४०.एमेव भावतो वि य, भिन्ने तत्थेक्क दव्वओ अभिन्नं । पंचम-छठे दोहि वि, नवरं पुण पंचमे अविही॥ श्रमणियों के प्रसंग में ये छह भंग होते हैं-१. द्रव्यतः तथा भावतः अभिन्न २. भावतः अभिन्न, द्रव्यतः अविधिभिन्न ३. भावतः अभिन्न, द्रव्यतः विधिभिन्न ४. भावतः भिन्न, द्रव्यतः अभिन्न ५. भावतः भिन्न, द्रव्यतः अविधिभिन्न ६. भावतः भिन्न द्रव्यतः विधिभिन्न। १०४१.लहुगा तीसु परित्ते, लहुओ मासो उ तीसु भंगेसु। गुरुगा होति अणंते, पच्छित्ता संजईणं तु॥ श्रमणियों के इन छहों भंगों का प्रायश्चित्त यह है-प्रथम तीन भंगों में परीत्तवनस्पति के लिए चतुर्लघु, भावतः अभिन्न होने के कारण। शेष तीन भंगों में परीत्तवनस्पति के लिए लघुमास, भावतः भिन्न होने के कारण। अनन्त वनस्पति में यह प्रायश्चित्त गुरुक हो जाता है। १०४२.अहवा गुरुगा गुरुगा, लहुगा गुरुगा य पंचमे गुरुगा। छट्टम्मि हवति लहुतो, लहुगत्थाणे गुरूऽणते॥ प्रथम भंग में अभिन्न होने के कारण गुरुक, द्वितीय भंग में भी गुरुक अविधिभिन्न होने के कारण, तीसरे भंग में लघुक विधिभिन्न होने के कारण, चौथे में गुरुक अभिन्न होने के कारण, पांचवें में गुरुक अविधिभिन्न होने के कारण, छठे में लघुमास विधि या अविधि भिन्न होने के कारण। यह परीत्त वनस्पति से संबंधित प्रायश्चित्त है। अनन्तवनस्पति में यही प्रायश्चित्त गुरुक हो जाता है। १०४३.आयरिओ पवत्तिणीए, पवित्तिणी भिक्खूणोण न कहेइ। गुरुगा लहुगा लहुओ, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ १०४४.गेण्हतीणं गुरुगा, पवत्तिणीए पवत्तिणी जइ वा। न सुती गुरुगाती, मासलहू भिक्खुणी जाव।। यदि आचार्य इस प्रलंबसूत्र को प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो उनको चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी यदि भिक्षुणीयों को नहीं कहती है तो चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। यदि भिक्षुणियां नहीं सुनती हैं तो लघुमास तथा अकथन और अश्रवण से आज्ञा-भंग आदि दोष भी होते हैं। यदि प्रवर्तिनी प्रलंबग्रहण करने वाली श्रमणियों की बृहत्कल्पभाष्यम् सारणा-वारणा नहीं करती है तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी के पास यदि गणावच्छेदिनी नहीं सुनती है तो चतुर्लघु, अभिषेका नहीं सुनती है तो मासगुरु और भिक्षुणी नहीं सुनती है तो मासलघु का प्रायश्चित्त विहित है। १०४५.अभिन्ने महव्वयपुच्छा, मिच्छत्त विराहणा य देवीए। किं पुण ता दुविहाओ भुत्तभोगी अभुत्ता य॥ श्रमणियों को अभिन्न प्रलंब लेना नहीं कल्पता, यह कहने पर शिष्य उनके महाव्रतों के विषय में पृच्छा करता है। कोई व्यक्ति श्रमणियों को अभिन्न प्रलंब लेते हुए देखकर मिथ्यात्व को प्राप्त होकर यह सोचता है कि निश्चित ही तीर्थंकरों ने इसके ग्रहण का प्रतिषेध नहीं किया है। वे असर्वज्ञ हैं। यह विराधना होती है। यहां रानी का दृष्टांत वक्तव्य हैं। भिक्षुणियां दो प्रकार की होती हैं-मुक्तभोगी और अमुक्तभोगी। (इस गाथा का विस्तार आगे।) १०४६.न वि छम्महव्वया नेव दुगुणिया जह उ भिक्खुणीवग्गे। बंभवयरक्खणट्ठा, न कप्पती तं तु समणीणं ।। ' भिक्षुणीवर्ग के न छह महाव्रत होते हैं और न भिक्षुओं से द्विगुणित अर्थात् दस महाव्रत होते हैं। (यद्यपि बौद्धों में भिक्षुओं के लिए २५० शिक्षापद हैं और भिक्षुणियों के लिए पांच सौ शिक्षापद हैं। जैन परंपरा में श्रमण और श्रमणी-दोनों के लिए पांच महाव्रतों का ही निर्देश है। श्रमणियों के लिए अभिन्न प्रलंबग्रहण का निषेध क्यों किया गया? आचार्य कहते हैं-यह निषेध केवल ब्रह्मचर्यव्रत की रक्षा के लिए किया गया है। १०४७.अन्नत्थ वि जत्थ भवे, एगयरे मेहुणुब्भवो तं तु। तस्सेव उ पडिकुटुं, बिइयस्सऽन्नेण दोसेणं॥ अन्यत्र भी जहां जिसके अर्थात् श्रमण या श्रमणी के वस्तु-ग्रहण से मैथुन की भावना का उद्भव होता हो, वह वस्तु उसके लिए अर्थात् श्रमण या श्रमणी के लिए प्रतिकुष्ट-प्रतिषिद्ध है। एक वर्ग के लिए उस दृष्टि से प्रतिषिद्ध वस्तु दूसरे वर्ग के लिए अन्य दोष के कारण प्रतिषिद्ध है। १०४८.निल्लोम-सलोमऽजिणे, दारुगदंडे सबंट पाए य। बंभवयरक्खणट्ठा, वीसुं वीसुं कया सुत्ता। निग्रंथों के लिए निर्लोमचर्म का प्रतिषेध स्मृति-कौतुक आदि दोषों के निवारण के लिए किया गया है और निग्रंथियों के लिए प्राणीदया के निमित्त प्रतिषेध है। इसी प्रकार श्रमणियों के सलोमचर्म का प्रतिषेध स्मृति आदि दोष निवारण के लिए तथा श्रमणों के लिए वही प्राणीदया के निमित्त प्रतिषेध है। इसी प्रकार दारुदंडक और सवृन्तपात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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