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पहला उद्देशक
अत्यंत दुर्बल हो गया हो, उसकी मरम्मत किए जाने पर भी वह विशीर्ण काष्ठ पुनः ठीक नहीं होता।
इसी प्रकार
जो एगदेसे अदढो उ पोतो, सीलप्पए सो उ करेइ कज्जं । जो दुब्बलो सीलविओ वि संतो, न तं तु सीलेंति विसिन्नदारुं । ( कल्पवृहदभाष्य) जो नौका किसी एक भाग में दुर्बल हो और उसकी मरम्मत कर दी जाए तो वह नौका कार्यकर हो जाती है। जो नौका दुर्बल हो, जीर्णशीर्ण काठ वाली हो, उसकी मरम्मत कर लेने पर भी वह काम की नहीं होती ।
(इसी प्रकार यदि तुम समझते हो कि स्वस्थ होकर प्रायश्चित वहन करूंगा, स्वाध्याय वैयावृत्त्य कर अधिक लाभ उपार्जित करूंगा तो तुम अकल्पनीय की प्रतिसेवना करो, अन्यथा नहीं।)
१०३१. सो पुण आलेवो वा, हवेज्ज आहारिमं व मिस्सियरं ।
पुव्वं तु पिट्ठगहणं, विगरण जं पुव्वछिन्नं वा ॥ १०३२. भावियकुलेसु गहणं, तेसऽसति सलिंगे गेण्हणाऽवन्नो । विकरणकरणालोयण, अमुगगिहे पच्चओ गीते ॥ वैद्य द्वारा निर्दिष्ट आलेप दो प्रकार का होता है-बाह्य पिंडीरूप और आहारिम | सर्वप्रथम अचित्त लेना चाहिए। न मिलने पर मिश्र उसकी भी अप्राप्ति होने पर इतर अर्थात् सचिन भी लिया जा सकता है कोई आलेप आहारयितव्य नहीं होता, स्पर्श से स्पर्शनीय होता है, जैसे पद्मोत्पल, कोई नासिका से आघ्रातव्य होता है, जैसे-पुष्प आदि । आलेप आदि पूर्व पिष्ट लेना चाहिए उसके अभाव में पूर्वच्छिन्न आलेप को विकरण कर अर्थात् अनेकविध खंडन कर लेना चाहिए । पूर्वच्छिन्न आलेप भावितकुलों से ग्रहण करे। उन कुलों के अभाव में अन्य कुलों से स्वलिंग से ग्रहण करने पर महान् अवर्ण होता है, इसलिए अलिंग से ग्रहण करे। जहां प्रलंब ग्रहण किया है, वहीं उनका विकरण करके गुरु के पास लाए और अगीतार्थ के प्रत्ययनिमित्त से यह कहते हुए आलोचना करे अमुक के घर में गृहस्वामी के लिए ये बनाए गए हैं।
१०३३. एसेव गमो नियमा, निम्मंथीणं पि नवरि छन्भंगा। आमे भिन्नाऽमित्रे, जाव उ पाउमुप्पलाईणि ॥ निर्गुथिनीयों के लिए भी यही गम-प्रकार यावत् पद्मोत्पलादि (गा. १०२९) तक ज्ञातव्य है विशेष यह है कि आम, प्रलंब, भिन्न, अभिन्न, विधिभिन्न अविधिभिन्न के आधार पर छह भंग होते हैं।
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कप्पइ निग्गंथाण पक्के तालपलंबे भिन्ने
वा अभिन्ने वा पडिगाहित्तए ॥
(सूत्र ३)
नो कप्पइ निग्गंथाण पक्के तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए ।
(सूत्र ४)
कप्पर निम्गंथीणं पाहे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए, से वि य विहिभिन्ने नो 'चेव णं' अविह्निभिन्ने ।
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(सूत्र ५)
१०३४. नाम ठवणा पह, दव्वे भावे य होइ नायव्वं । उस्सेइमाह तं चिय पक्किंधणनोगतो पक्कं ॥ पक्व के चार निक्षेप हैं-नामपक्व, स्थापनापक्व, द्रव्यपक्व और भावपक्व । उत्स्वेदिम आदि द्रव्यपक्व 'आम' कहलाता है। ( इसके चार प्रकार हैं- उत्स्वेदिम, संस्वेदिम, उपस्कृत और पर्याय) इंधन के संयोग से जो पकता है वह द्रव्यपक्व माना जाता है।
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१०३५. संजम चरितजोगा, उन्गमसोही य भावपक्कं तु ।
अन्नो वि य आएसो, निरुवक्कमनीवमरणं तु ॥ संयमयोग, चारित्रयोग तथा उद्गम आदि दोषों की शुद्धि भावपक्व है। इस विषय में एक अन्य आदेश भी है-जीव का निरुपक्रम आयुष्य से मरना भावपक्व है । १०३६. पक्के भिन्न-भिन्ने, समणाण वि दोसो किं तु समणीणं ।
समणे लहुओ मासो, विकडुभमाई य ते चेव ॥ जो पक्व अर्थात् निर्जीव है वह द्रव्यती भिन्न या अभिन्न हो सकता है। उसका ग्रहण श्रमणों के लिए दोषप्रद होता है तो श्रमणियों के लिए क्यों नहीं होगा? यदि श्रमण उसको ग्रहण करते हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त तथा विकटुम पनिमंध आदि दोष होते हैं।
१०३७. आणादि रसपसंगा, दोसा ते चेव जे पढमसुत्ते । इह पुण सुत्तनिवाओ, ततिय चउत्थेसु भंगेसु ॥ प्रथम सूत्र कथित पक्व प्रलंबग्रहण में भी आज्ञाभंग, रसप्रसंग आदि दोष होते हैं शिष्य कहता है-इस स्थिति में सूत्र निरर्थक है। आचार्य कहते हैं-सूत्रनिपात तीसरे और चौथे भंग के प्रसंग में है। दोनों भंग भावतः भिन्न से संबंधित हैं।
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