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= बृहत्कल्पभाष्यम्
होना, राजा का द्वेषी हो जाना, प्रत्यनीक का भय होना, बारबार ग्लानत्व होना, अनशनी मुनि के निर्यापन के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र के उत्सर्पण के निमित्त-इन आगाढ़ कारणों से मुनि अध्वप्रतिपन्न होते हैं। वे उपकरणों को साथ ले पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थवाह के साथ जाए। १०२१.अद्राणं पविसंतो, जाणगनीसाए गाहए गच्छं। ... अह तत्थ न गाहेज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा।
अध्वा में प्रवेश करते हुए आचार्य ज्ञायक अर्थात् गीतार्थ की निश्रा में समस्त गच्छ को अध्वकल्पस्थिति की जानकारी देते हैं। यदि वे अध्वकल्पस्थिति की जानकारी नहीं देते हैं तो चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। १०२२.गीयत्थेण सयं वा, गाहइ छडिंतो पच्चयनिमित्तं।
सारिति तं सुयत्था, पसंग अप्पच्चओ इहरा॥ स्वयं आचार्य अध्वकल्पस्थिति की जानकारी देते हैं अथवा गीतार्थ के द्वारा उसकी अवगति कराते हैं। जब वे बीच-बीच में जानबूझकर अर्थपद छोड़ देते हैं तब अगीतार्थ मुनियों के प्रत्यय के लिए उन त्यक्त अर्थपदों की स्मृति कराते हैं। अन्यथा उन शिष्यों के अप्रत्यय का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। १०२३.अद्धाणे जयणाए, परूवणं वक्खती उवरि सुत्ते।
ओमेऽवुवरिं वोच्छिइ, रोगाऽऽयंकेसिमा जयणा॥ अध्वगत मुनियों की प्रलंबग्रहण की जो सामाचारी है, उसकी प्ररूपणा आगे के 'अध्वसूत्र' में की जाएगी। अवमौदर्य की विधि भी आगे कही जाएगी। यहां ग्लानत्वद्वार कहा जा रहा है। ग्लानत्व के दो प्रकार हैं-रोग और आतंक। दोनों से संबंधित यतना इस प्रकार है। १०२४.गंडी-कोढ-खयाई, रोगो कासाइगो उ आयंको।
दीहरुया वा रोगो, आतंको आसुघाती उ॥ गंडमाला, कुष्ठरोग और राजयक्ष्मा ये सारे रोग कहे जाते हैं तथा कास आदि (श्वास, शूल, हिचकी, अतिसार
आदि) आतंक कहे जाते हैं। अथवा दीर्घकालभावी रोग रोग कहलाते हैं और आशुधाती रोग आतंक कहलाते हैं। १०२५.गेलन्नं पि य दुविहं, आगाढं चेव नो य आगाढं।
आगाढे कमकरणे, गुरुगा लहुगा अणागाढे॥ ग्लानत्व के दो प्रकार हैं-आगाढ़ और नोआगाढ़अनागाढ़। आगाढ़ में यदि पंचक परिहानि से यतना करता है तो चतर्गुरु और अनागाढ़ में चतुलधु।। १०२६.आगाढमणागाढं, पुव्वुत्तं खिप्पगहणमागाढे।
फासुगमफासुगं वा, चउपरियट्टं तऽणागाढे॥ आगाढ़ और अनागाढ़ का विषय पूर्व (गाथा ९५४) में १. शीलाप्यते-समारच्यते इत्यर्थः। (वृ. पृ. ३२३)
व्याख्यात है। आगाढ़ ग्लानत्व में प्रासुक-अप्रासुक का क्षीप्रग्रहण करना चाहिए। अनागाढ़ ग्लानत्व में यदि तीन बार में एषणीय प्राप्त न हो तो चौथे परिवर्त में पंचक आदि की यतना से अनेषणीय भी ग्रहणीय होता है। १०२७.विज्जे पुच्छण जयणा, पुरिसे लिंगे य दव्वगहणे य।
पिट्ठमपिढे आलोयणा य पन्नवण जयणा य॥ वैद्य, पृच्छा की यतना, पुरुष, लिंग, द्रव्यग्रहण, पिष्ट अथवा अपिष्ट, आलोचना, प्रज्ञापना तथा यतना। (इन शब्दों का स्पष्टार्थ आगे की गाथाओं में।) १०२८.वेज्जट्ठग एगदुगादिपुच्छणे जा चउक्कउवएसो।
इह पुण दव्वे पलंबा, तिन्नि य पुरिसाऽऽयरियमाई। वैद्य आठ प्रकार के हैं संविग्न, असंविग्न, लिंगी, श्रावक, यथाभद्र, अनभिगृहीतमिथ्यात्व, तर और अन्यतीर्थिक। इन वैद्यों को रोग का प्रतिकार पूछने के लिए एक, दो या चार मुनि न जाएं। तीन, पांच आदि जाए। इस रोग का प्रतिकार कैसे हो-यह पूछने पर वैद्य चतुष्कोपदेश देता है-अर्थात् द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से तथा भाव से प्रतिकार बताता है। (ये विस्तार से आगे बताए जाएंगे।) यहां द्रव्यतः प्रलंब तथा आचार्य, उपाध्याय, भिक्षु-ये तीन पुरुष हैं। १०२९.पउमुप्पले माउलिंगे, एरंडे चेव निंबपत्ते य।
पित्तुदय सन्निवाए, वायक्कोवे य सिंभे य॥ पित्तोदय में पद्म और उत्पल, सन्निपात में मातुलिंग (बीजपूरक), वायु के प्रकोप में एरंडपत्र, श्लेष्मा के प्रकोप में नीम के पत्ते औषध हैं। १०३०.गणि-वसभ-गीत-परिणामगा य जाणंति जं जहा दव्वं ।
इयरे सिं वाउलणा, नायम्मि य भंडि-पोउवमा।। जो ग्लान है वह गणी, वृषभ-उपाध्याय अथवा गीतभिक्षु है। भिक्षु के दो प्रकार हैं-परिणामक और अपरिणामक। परिणामक जो द्रव्य जैसा है उसको यथावत् जानते हैं। जो अपरिणामक होते हैं उनकी व्याकुलना करते हैं-अनेषणीय लाये हए के विषय में कहते हैं-अमुक गृहस्थ ने अपने लिए इनको निष्पन्न किया था। हम उसे लाए हैं। यदि वे यथार्थ रूप में जान लेते हैं तो यहां भंडी और पोत की उपमा से उन्हें समझाना चाहिए।
जो एगदेसे अदढा उ भंडी, सीलप्पए । सा उ करेति कज्ज। जा दुब्बला सीलविया वि संती, न तं तु सीलेंति विसिन्नदारूं।
(कल्पबृहद्भाष्य) जो शकट किसी एक भाग में शिथिल है, उसकी मरम्मत कर लेने पर वह शकट कार्यकारी हो जाता है। जो शकट
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