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पहला उद्देशक
संसार को बढ़ाने वाला होता है तथा कार्य में अर्थात् अवमौदर्य आदि में अविधि से गृहीत प्रलंब भी अहितकर होते हैं। १०११. जइ कुसलकप्पिताओ, उवमाओ न होज्ज जीवलोगम्मि।
छिन्नब्भं पिव गगणे, भमिज्ज लोगो निरुवमाओ॥ यदि इस जीव लोक में कुशल व्यक्तियों द्वारा रचित उपमाएं-दृष्टांत न हों तो आकाश में छिन्न-भिन्न बादलों की भांति यह लोक निरुपमाक-दृष्टांतविकल होकर इधर-उधर भ्रमण करने लग जायेगा। वह किसी अर्थ का निर्णय नहीं कर पायेगा। १०१२.मरुएहि य दिट्ठतो, कायव्वो चउहिं आणुपुवीए।
एवमिहं अद्धाणे, गेलन्ने तहेव ओमम्मि॥ चार मरुकों का यहां अनुपूर्वी से दृष्टांत कहना चाहिए। इस प्रकार मरुक दृष्टांत के अनुसार अध्वा, ग्लानत्व तथा अवमोदर्य में जानना चाहिए। १०१३.चउमरुग विदेसं साहपारए सुणग रन्न सत्थवहे।
ततियदिण पूतिमुदगं, पारगो सुणयं हणिय खामो॥ १०१४. परिणामओऽत्थ एगो, दो अपरिणया तु अंतिमो अतीव।
परिणामो सहहती, कन्नऽपरिणमतो मतो बितितो॥ १०१५.तइओ एयमकिच्चं, दुक्खं मरिउं ति तं समारद्धो।
किं एच्चिरस्स सिटुं, अइपरिणामोऽहियं कुणति॥ १०१६.पच्छित्तं खु वहिज्जह, पढमो अहालहुस धाडितो तइतो।
चउथो अ अतिपसंगा, जाओ सोवागचंडालो। चार मरुक विदेश जाने के लिए प्रस्थित हुए। एक शाखापारग (वेदाध्ययन पारगत) मरुक उनमें मिल गया। उसके साथ एक कुत्ता भी था। वे अरण्य में पहुंचे। चोरों ने सार्थ को लूट लिया। मरुक एक दिशा में पलायन कर गए। तीसरे दिन उन्होंने देखा कि एक गढ़े में कुथित पानी भरा है। उसमें अनेक मृतकलेवर पड़े हैं। शाखापारग बोला-इस कुत्ते को मार कर खालें और फिर इस पानी से प्यास बुझा लें। उन चार मरूकों में एक परिणामक, दो अपरिणामक और एक अतिपरिणामक था। शाखापारग की बात सुनकर परिणामक मरुक ने उस पर श्रद्धा कर ली। दूसरे अपरिणत मरुक ने 'ये वचन अश्रवणीय है' ऐसा कहकर कान ढंक लिए। तीसरे अपरिणत मरुक ने सोचा-यह अकृत्य है, परंतु मरना दुःखदायी होता है और उसने कुत्ते का मांस खाना प्रारंभ कर दिया। चौथा अतिपरिणामक था। उसने कहा-इतने विलंब से १. तावदेव चलत्यर्थो, मन्तुर्विषयमागतः।
यावन्नात्तम्भनेनेव, दृष्टान्तेनावलम्ब्यते॥ (वृ. पृ. ३१८) २. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४८
१०९ कुत्ते के मांस-भक्षण की बात क्यों कही? वह उससे आगे बढ़ा अर्थात् गाय-गर्दभ आदि का मांस भी खाने लगा। शाखापारग ने उनसे कहा-अटवी से पार होकर सभी प्रायश्चित्त वहन करें। प्रथम परिणामक था। वह यथालघुक प्रायश्चित्त से शुद्ध हो गया। दूसरा मर ही गया। तीसरे को चतुर्वेदी ब्राह्मणों ने तिरस्कृत किया और अपनी पंक्ति से बाहर कर दिया। चौथा अतिप्रसंग के कारण श्वपाकरूप चांडाल हो गया। १०१७.जह पारगो तह गणी, जह मरुगा एव गच्छवासीओ।
सुणगसरिसा पलंबा, मडतोयसमं दगमफासुं। इन पूर्वोक्त गाथाओं का उपनय यह है-शाखापारग की भांति गणी- आचार्य हैं। जैसे चार मरुक हैं वैसे गच्छवासी साधु हैं। शुनक (कुत्ते) के सदृश हैं प्रलंब और मृतकलेवराकुल पानी तुल्य है अप्रासुक उदक। १०१८.उद्दहरे सुभिक्खे, अद्धाणपवज्जणं तु दप्पेण।
लहुगा पुण सुद्धपदे, जं वा आवज्जती तत्थ।। ऊर्ध्वदर दो प्रकार के हैं-ध्यानदर और उदरदर। जहां ये दोनों भरे जाते हैं, वह ऊर्ध्वदर होता है। जहां भिक्षाचरों को भिक्षा सुलभ हो, वह सुभिक्ष कहलाता हैं। यहां चतुर्भंगी इस प्रकार है
१. ऊर्ध्वदर भी है, सुभिक्ष भी है। २. ऊर्ध्वदर है, सुभिक्ष नहीं। ३. सुभिक्ष है, ऊर्ध्वदर नहीं। ४. न ऊर्ध्वदर है और न सुभिक्ष है।
यद्यपि प्रथम और तृतीय भंग में मूलोत्तरगुणों की विराधना न होने के कारण वे शुद्धपद हैं किन्तु दर्प से अध्वा को प्रतिपन्न होने के कारण चतुर्लघुक का प्रायश्चित्त है तथा वहां यदि आत्मविराधना आदि होती है तो तत्संबंधी प्रायश्चित्त आता है। (इसका तात्पर्यार्थ है कि दुर्भिक्ष के कारण शेष दो भंगों (द्वितीय और चतुर्थ) में अध्वगमन स्वीकार किया जा सकता है। प्रथम और तृतीय भंग मे भी कारणवश अध्वगमन हो सकता है।) १०१९.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व आगाढे।
गेलन्न उत्तिमढे, नाणे तह दंसण चरित्ते॥ १०२०.एएहिं कारणेहिं आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं।
उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्येण गंतव्वं ॥ किसी विवक्षित देश में आगाढ़रूप से अशिव, अवमौदर्य ३. ऊर्ध्वदर-ऊध्वं दराः पूर्यन्ते यत्र काले तत् ऊर्द्धदरम्। (वृ. पृ. ३२०) ४. धान्य के आधारभूत दर-गढ़े आदि, जैसे कट, पल्य आदि।
(बृ. पृ. ३२०)
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