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=बृहत्कल्पभाष्यम्
जानना चाहिए। प्रलंब ग्रहण में उनके हस्तकर्म आदि के सविशेषतर दोष होते हैं।
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कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा आमे तालपलंबे भिन्ने पडिगाहित्तए॥
(सूत्र २) १००१. जइ वि निबंधो सुत्ते, तह वि जईणं न कप्पई आमं।
जइ गिण्हइ लग्गति सो, पुरिमपदनिवारिए दोसे॥ यद्यपि सूत्र में निबंध प्रतिपादन है कि 'कल्पते भिन्नम्', फिर भी मुनियों को भिन्न किया हुआ अपक्व प्रलंब लेना नहीं कल्पता। यदि वह लेता है तो पूर्वपद में पूर्वसूत्र में जो निवारित दोष हैं, वे उसको प्राप्त होते हैं। १००२. सुत्तं तू कारणियं, गेलन्न-उद्धाण-ओममाईसु।
जह नाम चउत्थपदे, इयरे गहणं कहं होज्जा॥ यह सूत्र कारणिक है अर्थात् कारण में प्रयुज्यमान है। कारण ये हैं लानत्व, अध्वा, अवमौदर्य। जैसे चतुर्थपद अर्थात चतुर्थ भंग में ग्रहण है वैसे इतर भंगों-तीसरे, दूसरे और प्रथम भंग में ग्रहण कैसे होगा? १००३. पुव्वमभिन्ना भिन्ना, य वारिया कहमियाणि कप्पंति।
सुण आहरणं चोयग!, न कमति सव्वत्थ दिटुंतो॥ १००४. जइ दिद्रुता सिद्धी, एवमसिद्धी उ आणगेज्झाणं।
अह ते तेसि पसिद्धी, पसाहए किन्नु दिटुंतो॥ शिष्य कहता है-पूर्वसूत्र में अभिन्न प्रलंबग्रहण प्रतिषिद्ध किया है, तब इस सूत्र में उनको ग्रहण करना कल्पता है, यह कैसे कहा गया? आचार्य कहते हैं-वत्स! तुम एक दृष्टांत सुनो। तब शिष्य पुनः बोला-भंते! दृष्टांत सर्वत्र अर्थ का प्रतिपादक नहीं होता। और यदि दृष्टांतों से अर्थसिद्धि होती हे तो फिर आज्ञा ग्राह्य विषय जैसे निगोद, भव्य, अभव्य आदि की असिद्धि का प्रसंग उपस्थित होगा। यदि तुम्हारी आज्ञा से उनकी प्रसिद्धि है तो दृष्टांत से अर्थसिद्धि क्यों करते हैं? १००५. कप्पम्मि अकप्पम्मि य, दिट्ठता जेण होति अविरुद्धा।
तम्हा न तेसि सिद्धी, विहि-अविहिविसोवभोग इव ।। जिन कारणों से कल्प्य और अकल्प्य में दृष्टांत अविरुद्ध होते हैं अर्थात् दृष्टांत के आधार पर कल्प्य को अकल्प्य और अकल्प्य को कल्प्य किया जा सकता है। अतः दृष्टांतों से अर्थ की सिद्धि नहीं होती। दृष्टांत के बल पर जो स्वयं को इष्ट हो उसे प्रसाधित किया जा सकता है। १. बलसा-छान्दसत्वात् बलात्कारेण इत्यर्थः। (वृ. पृ. ३१७)
जैसे-विधिपूर्वक विषभक्षण करना दोषप्रद नहीं होता। अविधिपूर्वक विष का उपभोग करना महान् अनर्थ का हेतु होता है। १००६.असिद्धी जइ नाएणं, नायं किमिह उच्यते।
अह ते नायतो सिद्धी, नायं किं पडिसिज्झती।। शिष्य के द्वारा इतना कहने पर आचार्य कहते हैं यदि दृष्टांत से अर्थ की असिद्धि होती है तो तुमने यहां विष का दृष्टांत क्यों दिया? यदि तुम्हारे दृष्टांत से अर्थ की सिद्धि होती है तो फिर तुम हमारे द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत का प्रतिषेध क्यों करते हो? १००७.अंधकारो पदीवेण, वज्जए न उ अन्नहा।
तहा दिटुंतिओ भावो, तेणेव उ विसुज्झई।। अंधकार का वर्जन प्रदीप के द्वारा ही होता है, अन्यथा नहीं। वैसे ही दार्टान्तिक (दृष्टान्तग्राह्य) भाव, दृष्टांत के द्वारा ही निर्मल होता है, स्पष्ट होता है। १००८.एसेव य दिट्ठतो, विहि-अविहीए जहा विसमदोस।
होइ सदोसं च तथा, कन्जितर जया-ऽजय फलाई। वत्स! तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत दृष्टांत हम प्रस्तुत सूत्रार्थ में अवतरित करते हैं। तुमने कहा था विधिपूर्वक विष का उपभोग करना सदोष नहीं होता और अविधि से उपभुक्त वही विष दोषप्रद हो जाता है। इसी प्रकार कार्य के उपस्थित होने पर यतनापूर्वक फल आदि का आसेवन करना दोषप्रद नहीं होता तथा अकार्य में अयतनापूर्वक उनका सेवन दोषप्रद होता है। १००९.आयुहे दुन्निसम्मि, परेण बलसा हिए।
वेताल इव दुज्जुत्तो, होइ पच्चंगिराकरो। किसी व्यक्ति ने आयुध को दुर्निसृष्ट-अविधिपूर्वक फेंका अथवा किसी ने उस आयुध का बलपूर्वक अपहरण कर लिया, तो उसी आयुध से उस फैंकने वाले का प्रतिघात होता है। जैसे-दुर्युक्त अर्थात् दुःसाधित वेताल उस साधक के लिए 'प्रत्यंगिराकर' अर्थात् अपकारकारी हो जाता है। (वैसे ही तुमने जो विषदृष्टांत दिया, वह दुष्प्रयुक्त होने के कारण तुम्हारे पक्ष का उपहनन करने वाला हो गया।) १०१०.निरुतस्स विकडुभोगो, अपत्थओ कारणे य अविहीए।
इय दप्पेण पलंबा, अहिया कज्जे य अविहीए। स्वस्थ व्यक्ति के लिए कटुक औषधि का उपयोग तथा रोग आदि में उसका अविधि से उपयोग यह दोनों के लिए अपथ्य अर्थात् अहितकर होता है। इसी प्रकार दर्प से अर्थात बिना किसी कारण के प्रलंब का आसेवन करना अहितकर
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