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पहला उद्देशक
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विकदभ-शालनक की एषणा में दीर्घ गोचरी करता है और एषणीय न मिलने पर अनेषणीय का ग्रहण कर एषणा को दूषित करता है। यहां निःपिशित मद्यप का दृष्टांत है। मुदगफली का परिमंथ। (व्याख्या आगे)
एक अमांसभक्षी पुरुष का मद्यपों के साथ संसर्ग था। मद्यपों ने कहा-मदिरा पीने में क्या दोष है? उन्होंने उसे सौगंध दिलाई। वह लज्जावश उनके साथ मद्य पीने लगा। पहले एकांत में पीता, फिर अनेक लोगों के बीच पीने लगा। कुछ लोगों ने कहा-मांस के बिना कैसा मद्यपान! दूसरों द्वारा मारे गए, जीव का मांस खाने में क्या दोष है? वह मांस खाने लगा। अब वह मांस खाने में अभ्यस्त हो गया। वह स्वयं जीवों को मारकर मांस खाने लगा। उसके मन की घृणा निकल गई।
जैसे मद्यप मांसभक्षण के बिना नहीं रह सकता, वैसे ही प्रलंबरस में गृद्ध मुनि को प्रलंब के बिना भक्तपान रचिकर नहीं लगता। वह एक दिन भी उसके बिना नहीं रह सकता। फिर अभ्यस्त हो जाने पर वह स्वयं वृक्ष से प्रलंब तोड़कर अपनी आदत पूरी करता है।
एक राजा शिकार करने जा रहा था। उसने देखा कि एक खेत में एक स्त्री मूंग की कोमलफलियों को खा रही है। शिकार से लौटते समय भी उस स्त्री को उसी खेत में फली खाते देखा। उसके मन में प्रश्न हुआ कि इसने कितनी फलियां खा ली होंगी? उसका पेट फाड़ डाला। उसमें केवल फेनरस देखा। ९९५. अवि य हु सव्व पलंबा, जिण-गणहरमाइएहऽणाइन्ना।
लोउत्तरिया धम्मा, अणुगुरुणो तेण ते वज्जा। पूर्व दूषणों के अतिरिक्त सभी प्रलंबों (सचित्त-अचित्त या मूल-कंद आदि दस प्रकार के) को तीर्थंकरों ने, गणधरों ने तथा अन्यान्य आचार्यों ने अनाचीर्ण माना है। लोकोत्तरिक जो धर्म हैं वे अनुगुरु अर्थात् पूर्वगुरुओं के द्वारा जैसे आचरित होते हैं पश्चानुवर्ती को भी उनका वैसा ही आचरण करना होता है। इसीलिए प्रलंब वर्जनीय हैं। ९९६. काम खलु अणुगुरुणो, धम्मा तह वि हुन सव्वसाहम्मा।
गुरुणो जं तु अइसए, पाहुडियाई समुपजीवे॥ यह अनुमत है कि सभी धर्म अनुगुरु होते हैं, फिर भी वे सर्वसाधर्म्य की दृष्टि से नहीं, देशसाधर्म्य से ही वैसे होते हैं। गुरु अर्थात् तीर्थकर प्राभृतिका (समवसरण की रचना) आदि अतिशयों का उपभोग करते हैं, इनमें अनुधर्मता नहीं होती। १.२. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४६-४७।
९९७. सगड-बह-समभोमे, अवि य विसेसेण विरहियतरागं।
तह वि खलु अणाइन्नं, एसऽणुधम्मो पवयणस्स। जब भगवान महावीर उदायनराजा को प्रव्रजित करने के लिए राजगृह नगर से सिन्धुसौवीर देश के वीतभयनगर की ओर प्रस्थित हुए तब मार्ग में अनेक मुनि क्षुधा, पिपासा और संज्ञा से बाधित हुए। जहां मार्ग में भगवान् आवासित हुए वहां तिलों से भरे हुए शकट, पानी से परिपूर्ण हृद और समभूमीभाग वाला स्थंडिल था। और ये तीनों शकट, हृद और स्थंडिल भूमी विशेषरूप से 'विरहिततराग' अत्यंत जीव रहित और निरवद्य थे। फिर भी भगवान् ने उनकी अनुज्ञा नहीं दी। यह प्रवचन का अनुधर्म था। इसीका आचरण करना चाहिए। ९९८. वक्त्रंतजोणि थंडिल, अतसा दिन्ना ठिई अवि छुहाए।
तह वि न गेण्हिंसु जिणो, मा हु पसंगो असत्थहए। जो तिलों से भरे हुए शकट थे, उनमें जो तिल थे वे 'व्युत्क्रांतयोनिक' अर्थात् अचित्त थे। वे स्थंडिलभूमी पर स्थित थे। वे त्रस जीवों से आक्रांत नहीं थे। वे तिल शकटस्वामी द्वारा दिए जा रहे थे। साधु क्षुधा से पीड़ित होकर मत्यु को प्राप्त हो गए। फिर भी भगवान महावीर ने उन तिलों को ग्रहण नहीं किया, ग्रहण करने की अनुज्ञा नहीं दी। अशस्त्रोपहत के ग्रहण का प्रसंग न बन जाए, इसलिए भगवान् ने ग्रहण नहीं किया। उन्होंने सोचा कि मेरा आलंबन लेकर मेरे शिष्य अशस्त्रोपहत ग्रहण करने न लग जाएं। ९९९. एमेव य निज्जीवे, दहम्मि तसवज्जिए दए दिन्ने।
समभोम्मे य अवि ठिती, जिमिता सन्ना न याऽणुन्ना॥ इसी प्रकार पानी से भरा हुआ हृद निर्जीव, त्रस प्राणियों से वर्जित, हृद स्वामी द्वारा दत्त था, फिर भी भगवान् ने उसके पानी की अनुज्ञा नहीं दी। तीसरे प्रहर में भोजन करने के पश्चात् भगवान् साधुओं के साथ एक अटवी में प्रविष्ट हुए। साधु संज्ञा से बाधित हुए। वहां समभौम भूमी थी। वह स्थंडिल भूमी यथास्थिति से क्षयप्राप्त व्युत्क्रांत योनि वाली अचित्त भूमी थी। वह त्रस प्राणियों से रहित थी। भगवान् ने उस स्थंडिल की अनुज्ञा नहीं दी। अनेक मुनि इस स्थिति में मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे, यह जानते हुए भी भगवान् ने अनुज्ञा नहीं की। अशास्त्रोपहत भूमी का प्रसंग न बन जाए, इसलिए। यह अनुधर्मता है। १०००. एसेव गमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो।
सविसेसतरा दोसा, तासिं पुण गिण्हमाणीणं॥ यही समूचा 'गम'-प्रकार नियमतः साध्वियों के लिए भी
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