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जाता।
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बृहत्कल्पभाष्यम् प्रक्षेपक) की तरह हो, और तृतीय भंगवर्ती (अनेक ग्रहण, लगने लगता है। फिर उसमें भिन्नाभिन्न के ग्रहण में विवेक एक प्रक्षेपक) हो तो वह यतनापूर्वक होनी चाहिए।
नहीं रहता। वह सचित्त प्रलंबग्रहण का परिहार करने में भी ९८५. पायच्छित्ते पुच्छा, उच्छुकरण महिड्डि दारु थली य दिद्रुतो। समर्थ नहीं होता।
चउत्थपदं च विकडुभं पलिमंथो चेवऽणाइन्नं॥ ९९०. छड्डाविय-कयदंडे, न कमेति मती पुणो वि तं घेत्तुं। प्रायश्चित्त पृच्छा। इक्षुकरण, महर्द्धिक, दारु, स्थली-ये न य से वड्डइ गेही, एमेव अणंतकाए वि॥ दृष्टांत हैं। चतुर्थपद, विकटुभ, परिमंथ और अनाचीर्ण यह आचार्य ने शिष्य को प्रलंबग्रहण का त्याग करवा दिया द्वार गाथा है। (व्याख्या आगे।)
और गृहीत के लिए दंड भी दिया। अब न उसमें प्रलंबग्रहण ९८६. चोएइ अजीवत्ते, तुल्ले कीस गुरुगो अणंतम्मि। की मति होती है और न वह उसे पुनः ग्रहण करता है, न
कीस य अचेयणम्मी, पच्छित्तं दिज्जए दव्वे॥ उसकी गृद्धि बढ़ती है। इसी प्रकार अनन्तकाय के विषय में शिष्य ने पूछा-परीत्त और अनन्तवनस्पति में (तृतीय भी जानना चाहिए। और चतुर्थ भंग में) अजीवत्व तुल्य होने पर भी अनन्त ९९१. कन्नतेपुर ओलोयणेण अनिवारियं विणटुं तु। वनस्पति में गुरुमास और परीत्त वनस्पति में लघुमास का दारुभरो य विलुत्तो, नगरद्दारे अवारितो॥ प्रायश्चित्त क्यों? अचेतन द्रव्य विषयक प्रायश्चित्त क्यों? ९९२. बितिएणोलोयंती, सव्वा पिंडित्तु तालिता पुरतो। ९८७. साऊ जिणपडिकुट्ठो, अणंतजीवाण गायनिप्फन्नो। भयजणणं सेसाण वि, एमेव य दारुहारी वि।।
गेही पसंगदोसा, अणंतकाए अतो गुरुगो।। राजा का कन्यान्तःपुर था। वे कन्याएं झरोखे से बाहर परीत्त से अनन्त वनस्पति स्वादु होती है, अतः तीर्थंकरों झांकती थीं। उनको कोई निवारित नहीं करता। वे सब विनष्ट ने इसको प्रतिषिद्ध माना है। इसके प्रतिषेध के अनेक कारण हो गईं। हैं-वह अनन्तजीवों के शरीर से निष्पन्न होता है। स्वादु होने लकड़ियों से भरा एक शकट नगरद्वार में प्रवेश कर रहा के कारण गृद्धि होती है। उसके प्रसंग से अनेषणीय ग्रहण का था। एक लकड़ी नीचे गिरी। एक लड़के ने उसे ले लिया। दोष भी होता है। अतः अचित्त अनन्तकाय के ग्रहण में दूसरे लड़के ने शकट से एक लकड़ी खींच कर ले ली। किसी गुरुमास का प्रायश्चित्त है।
ने निवारित नहीं किया। सारा शकट खाली हो गया। ९८८. न वि खाइयं न वि वई, न गोण-पहियाइए निवारेइ। दूसरे अन्तःपुरपालक ने झरोखे से झांकती हुई कन्या को
इति करणभई छिन्नो, विवरीय पसत्थुवणओ य ॥ देखा। उसको अन्य कन्याओं के समक्ष ताड़ित किया। सबमें एक कौटुंबिक ने ईक्षु रोपे। उसने अपने खेत के चारों भय उत्पन्न हो गया। ओर न खाई खोदी, न बाड़ लगाई, न गाय-बैल तथा पथिकों इसी प्रकार दारुहारी को डराया। सभी में भय उत्पन्न को उसमें प्रवेश करने से निवारण किया, उसका सारा खेत हुआ और शकट की सारी लकड़ियां बच गईं। विनष्ट हो गया। इससे कर्मकरों की भृति का उच्छेद हो ९९३. थलि गोणि सयं मुय भक्खणेण लद्धपसरा थलिं तु पुणो। गया। इस प्रकार वह कौटुंबिक छिन्न हो गया-विनष्ट हो घातेसु बितिएहिं उ, कोट्टग बंदिग्गह नियत्ती॥ गया। इसके विपरीत प्रशस्त उपनय वक्तव्य है। जिस स्थली अर्थात् देवद्रोणी से संबंधित गाएं गोचर में चली कौटुंबिक ने अपने इक्षु वाटक के चारों ओर खाई खुदवाई, ___गई। एक बूढ़ी गाय स्वयं मर गई। वहां के पुलिंदों ने उसे खा बाड़ लगवाई, पशु और मनुष्यों का प्रवेश निवारित किया, डाला। उसकी किसी ने वर्जना नहीं की। पुलिंदों का आनाउसके कर्मकरों की भृति का उच्छेद नहीं हुआ और उसे जाना बढ़ा। उन्होंने स्थली को नष्ट कर डाला। वाटिका से प्रचुर लाभ मिला। दोनों दृष्टांतों का उपनय देवद्रोणी के अन्य परिचारकों ने कोट्टक-पुलिंद पल्ली आगे के दो श्लोकों में)
में जाकर पल्ली को भग्न कर डाला और पुलिंदों की ९८९.को दोसो दोहिं भिन्ने, पसंगदोसेण अणरुई भत्ते।। बंदीगृह में निवृत्ति कर दी। पल्ली के स्थान पर बंदीगृह बना
भिन्नाभिन्नग्गहणे, न तरइ सजिए वि परिहरिउं॥ किसी शिष्य ने पूछा-द्रव्य और भाव-दोनों से भिन्न ९९४. विकडुभमग्गणे दीह, च गोयरं एसणं च पिल्लिज्जा। प्रलंबग्रहण में क्या दोष है? प्रलंब के रसास्वादन में लुब्ध निप्पिसिय सोंड नायं, मुग्गछिवाडीए पलिमंथो॥ होकर वह मुनि प्रसंगदोष से उसे तरिक्त भक्त अरुचिकर प्रलंबस्वादु मुनि को भक्तपान मिल जाने पर भी वह १-३. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४३.४५।
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