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पहला उद्देशक = ९७६. चोएई वणकाए, पगए लोणादियाण किं गहणं।
आहारेण हिगारो, तस्सुवकारी अतो गहणं॥ शिष्य ने पूछा-वनस्पति के प्रकरण में लवण आदि का ग्रहण क्यों किया गया? आचार्य ने कहा-सूत्र में आहार का अधिकार था। आहार का उपकारी है लवण। इसलिए उसका ग्रहण किया गया है। ९७७. छहिं निप्फज्जइ सो ऊ, तम्हा खलु आणुपुब्वि किं न कया।
पाहन्नं बहुयत्तं, निप्फत्ति सुहं च तो न कमो॥ शिष्य ने पुनः पूछा-आहार की निष्पत्ति छह जीवनिकायों से होती है तो फिर आनुपूर्वी से छहों कायों का उल्लेख सूत्र में गृहीत क्यों नहीं है? आचार्य ने कहा-प्रधानरूप से तथा बहलता से तथा सहजता या सुखपूर्वक वनस्पति ही आहार की निष्पत्ति में कारणभूत होती है, वैसे पृथ्वी आदि काय नहीं होते। इसलिए सूत्र में वनस्पति का ही उल्लेख हुआ है। ९७८. उप्पल-पउमाई पुण, उण्हे दिन्नाई जाम न धरिती।
मोग्गरग-जूहियाओ, उण्हे छूढा चिरं होंति॥ ९७९. मगदंतियपुप्फाई, उदए छूढाइं जाम न धरिती।
उप्पल-पउमाई पुण, उदए छूढा चिरं होति॥ उत्पल और पद्म आतप में रखने पर प्रहरमात्र भी जीवित नहीं रह सकते। वे प्रहर से पहले ही अचित्त हो जाते हैं। मुद्गर-मगदन्तिका के पुष्प तथा यूथिका के पुष्प (उष्णयोनिक होने के कारण) आतप में रखने पर भी चिरकाल तक सचित्त रह सकते हैं। मगदन्तिका के पुष्प उदक में डालने पर प्रहरमात्र भी सचित्त नहीं रह सकते। उत्पल और पद्म (उदकयोनिक होने के कारण) चिरकाल तक भी उदक में सचित्त रह सकते हैं। ९८०. पत्ताणं पुप्फाणं, सरफलाणं तहेव हरियाणं।
विंटम्मि मिलाणम्मी, नायव्वं जीवविप्पजढं॥ पत्र, पुष्प, सरडुफल (वह फल जिसमें अभी तक गुठली नहीं पड़ी है) तथा हरित (तरुण वनस्पति) का वृंत म्लान हो जाने पर जान लेना चाहिए कि वे जीवविप्रमुक्त हो गए हैं। ९८१. चउभंगो गहण पक्खेवए अ एगम्मि मासियं लहुयं।
गहणे पक्खेवम्मि, होति अणेगा अणेगेसु॥ ग्रहण और प्रक्षेपण की चतुर्भगी है - १. एक का ग्रहण एक प्रक्षेपक २. एक का ग्रहण अनेक प्रक्षेपक ३. अनेक का ग्रहण एक प्रक्षेपक
४. अनेक का ग्रहण अनेक प्रक्षेपक। १. ग्रहण-प्रलंब आदि का ग्रहण। प्रक्षेपण-मुंह में डालना। २. विडसणा णाम आसादेतो थोवं थोवं खायइ। (वृ. पृ. ३०९)
इनका प्रायश्चित्त अनेक प्रकार का है। एक का ग्रहण और एक प्रक्षेपक में प्रत्येक का प्रायश्चित्त है एक मासलघु। अनेक ग्रहण और अनेक प्रक्षेपकों में अनेक मासलधु का प्रायश्चित्त आता है। यह प्रायश्चित्त जैसे केवली जानता है, वैसे ही गीतार्थ भी जानता है। ९८२. पडिसिद्धा खलु लीला, बिइए चरिमे य तुल्लदव्वेसु।
निद्दयता वि हु एवं, बहुघाए एगपच्छित्तं॥ शिष्य ने कहा-लीला से ही ऐसे वैसे ही यह प्रतिषेध है, जीवोपघात के आधार पर नहीं। तुल्यद्रव्य अर्थात् प्रलंब फलों का तुल्य जीवत्व होने पर भी दूसरे भंग में एक फल का और चरमभंग में अनेक फलों का अनेक बार प्रक्षेपक होने के कारण अनेक मासिक का प्रायश्चित्त देते हैं और तीसरे भंग में अनेक फलों का ग्रहण, परंतु एक प्रक्षेपक के आधार पर एक लघुमास का प्रायश्चित्त देते हैं। यह राग-द्वेष नहीं है क्या? बहुघात में एक लघुमास का प्रायश्चित्त है, क्या यह निर्दयता नहीं है? ९८३. चोयग! नियतं चिय,
णेच्छंता विडसणं पि नेच्छामो। निव मिच्छ छगल सुरकुड,
मता-ऽमताऽऽलिंप भक्खणता॥ शिष्य! हम निर्दयता भी नहीं चाहते और विदशन-- आस्वाद के लिए थोड़ा-थोड़ा भक्षण भी नहीं चाहते। यहां दो म्लेच्छों का दृष्टांत है
एक राजा के दो म्लेच्छ सेवक थे। राजा ने तुष्ट होकर दोनों को एक-एक मदिरा घट और एक-एक छगल दिया। एक म्लेच्छ ने छगल को मारकर दो-चार दिन में उसका भक्षण कर दिया। दूसरा म्लेच्छ उसके एक-एक अंग का छेदन कर लवण आदि से आलेपन कर खाता है। कुछ दिनों बाद वह छगल मर जाता है। प्रथम म्लेच्छ का एक प्रहार से एक वध और दूसरे म्लेच्छ के जितने छेदन-भेदन से छगल मरता है, उतने वध हुए। लोक में वह अधिक पापी माना जाता है। ९८४. अच्चित्ते वि विडसणा, पडिसिद्धा किमु सचेयणे दव्वे।
कारणे पक्खेवम्मि उ, पढमो तइओ अ जयणाए। अचित्त द्रव्य विषयक विदशना (टुकड़े-टुकड़े कर स्वाद लेकर खाना) भी प्रतिषिद्ध है तो फिर सचित्त द्रव्य विषयक विदशना का तो कहना ही क्या! यदि कारण में सचित्त द्रव्य का प्रक्षेपण होता है तो वह प्रथमभंग (एक ग्रहण, एक ३. देखें कथा परिशिष्ट, नं. ४२।
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