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चतुर्दशपूर्वधर परस्पर षट्स्थानवर्ती होते हैं। इसलिए प्रज्ञापनीयभावों का अनन्तवां भाग श्रुत (चतुर्दशपूर्वरूप) में निबद्ध है। ९६६. केवलविन्नेयत्थे, सुयनाणेणं जिणो पगासेइ।
सुयनाणकेवली वि हु, तेणेवऽत्थे पगासेइ॥ केवलज्ञान द्वारा जो अर्थ-पदार्थ विज्ञेय हैं, उनका 'जिन' अर्थात केवली श्रुतज्ञान से प्रकाशन करता है। श्रुतज्ञानी केवली भी उन्हीं अर्थों का इसी श्रुतज्ञान के द्वारा प्रकाशन करता है। (अतः श्रुतकेवली और केवलज्ञानी दोनों प्रज्ञापन की दृष्टि से तुल्य हैं।) ९६७. गूढछिरागं पत्तं, सच्छीरं जं च होइ निच्छीरं।
जं पि य पणट्ठसंधिं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ जिस वनस्पति के सक्षीर या निःक्षीर पत्र गूढशिरा वाले होते हैं अर्थात् जिनके स्नायु गूढ़ होते हैं-अनुपलक्षित होते हैं तथा जो प्रनष्ट संधि वाले होते हैं, उसको अनन्तकायिक वनस्पति जानना चाहिए। ९६८. चक्कागं भज्जमाणस्स, गंठी चुण्णघणो भवे।
पुढविसरिसेण भेएणं, अणंतजीवं वियाणाहि॥ जिसके मूल आदि को तोड़ने पर चक्राकार टुकड़ा होता है और जिसकी ग्रंथी-पर्व को तोड़ने पर वह घनचूर्ण वाला होता है, पृथ्वीसदृश समभेद होता है, उसको अनन्तकायिक वनस्पति जानना चाहिए। ९६९. जस्स मूलस्स भग्गस्स, समो भंगो पदीसई।
अणंतजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे॥ जिसके मूल को तोड़ने पर समान टुकड़े होते हैं, वह मूल अनन्तकायिक वनस्पति है। जो अन्य अर्थात् स्कंध आदि हैं, वे भी समभाग से टूटते हैं तो वे भी अनन्तकायिक हैं। ९७०. जस्स मूलस्स भग्गस्स, हीरो भंगे पदिस्सए।
परित्तजीवे उ से मूले, जे याऽवऽन्ने तहाविहे। __ जिस वनस्पति के मूल को भग्न करने पर 'हीर' अर्थात् तंतुकविशेष देखे जाते हैं, वह परीत्तजीवी मूल है। उसी प्रकार के अन्य स्कंध आदि भी परीत्तजीवी वनस्पति हैं। ९७१. जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली बहलतरी भवे।
अणंतजीवा उ सा छल्ली, जा याऽवऽन्ना तहाविहा॥ जिसके मूल से संबंधित काष्ठ से छल्ली-छाल स्थूल होती है (जैसे-शतावरी) वह छल्ली अनन्तकायिक होती है। १. प्रश्न होता है कि सभी चतुर्दशपूर्वियों को समान अक्षरलाभ होने पर
भी षट्स्थानपतित्व कैसे उचित हो सकता है ? आचार्य कहते हैं-एक ही सूत्र के अनन्त, असंख्य और संख्य अर्थ मतिविशेषगत हैं। वे श्रुतज्ञान के आभ्यन्तरवर्ती होते हैं। अतः परस्पर पदस्थानपतित्व
बृहत्कल्पभाष्यम् जो इस प्रकार की अन्य वनस्पति होती है, वह भी अनन्तकायिक है। ९७२. जस्स मूलस्स कट्ठातो, छल्ली तणुयतरी भवे।
परित्तजीवा तु सा छल्ली, जा याऽवऽण्णा तहाविहा॥ जिसके मूल से संबंधित काष्ठ से छाल तनुक-श्लक्ष्ण होती है वह छाल परीत्तजीवी है, (जैसे आम्र)। जो उसी प्रकार की अन्य छाल होती है वह भी परीत्तजीवी है। ९७३. जोअणसयं तु गंता, अणहारेणं तु भंडसंकंती।
वाया-ऽगणि-धूमेण य, विद्वत्थं होइ लोणाई।। लवण आदि अपने उत्पत्ति स्थान से संक्रामित होकर अन्यत्र ले जाया जाता हुआ, प्रतिदिन विध्वस्त होता हुआ, सौ योजन के पश्चात् पूर्ण विध्वस्त हो जाता है, अचित्त हो जाता है। इसके और भी अनेक कारण हैं। उसे अनाहार अर्थात् स्वयोग्य आहार नहीं मिलता। भांडसंक्रांती-एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाला जाता हुआ अथवा एक शकट से दूसरे शकट में भरा जाता हुआ वह अचित्त हो जाता है। तथा वायु, अग्नि और धूम से भी वह अचित्त हो जाता है। ९७४. हरियाल मणोसिल पिप्पली य खज्जूर मुद्दिया अभया।
आइन्नमणाइन्ना, ते वि हु एमेव नायव्वा ।। लवण की भांति हरिताल, मनःशिला, पिप्पली, खजूर, दाख, अभया-हरड (हरीतकी)-ये भी योजनशतगमन आदि कारणों से अचित्त हो जाते हैं। ये दोनों प्रकार के हैं-आचीर्ण और अनाचीर्ण। (इनमें पिप्पली, हरीतकी आदि आचीर्ण माने जाते हैं, वे ग्राह्य हैं। खजूर, द्राक्षा आदि अनाचीर्ण हैं। वे ग्राह्य नहीं हैं।) ९७५. आरुहणे ओरुहणे, निसियण गोणादिणं च गाउम्हा।
भुम्माहारच्छेदे, उवक्कमेणं च परिणामो॥ (सामान्यतः सभी वस्तुओं के परिणमन का कारण)
शकट, बैल आदि के पीठ पर लवण आदि को लादना, उतारना, यह क्रिया बार-बार करने पर तथा लवण आदि के थैलों पर मनुष्य के बैठने के कारण शरीर की उष्मा से तथा बैल आदि के शरीर की उष्मा से वह लवण विध्वस्त हो जाता है। जो जिसका भूमी आदि से संबंधित आहार है, उसका व्यवच्छेद होने पर, वह उन जीवों के विनाश का उपक्रम-शस्त्र बन जाता है। यही परिणाम है।
विरुद्ध नहीं है। कहा भी है
अक्खरलंभेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेहिं। ते पुण मईविसेसे, सुयनाणभंतरे जाण।।
(विशेषावश्यक भाष्य गाथा १४३)
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