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पहला उद्देशक
यहां यतना है त्रिपरिरया। परिरय का अर्थ है-चारों ओर परिभ्रमण। मुनि एषणीय आहार प्राप्ति के लिए ग्राम आदि में तीन बार परिभ्रमण करे। लाभ न होने पर पंचकपरिहानि (प्रायश्चित्तविधि) से प्राप्ति का प्रयत्न करे। ९५७. इह-परलोगे य फलं, इह आहाराइ इक्कमेक्कस्स।
सिद्धी सग्ग सुकुलता, फलं तु परलोइयं एयं॥ फल दो प्रकार का होता है-इहलोकफल और परलोकफल। इहलोकफल है-आहार, वस्त्र, पात्र आदि की उपलब्धि और परलोकफल है-सिद्धिगमन, स्वर्गगमन, सुकुलोत्पत्ति। इन दोनों प्रकार के फलों की स्वयं को तथा पर को कैसे प्राप्ति हो, इस चिंतन का गीतार्थ समाचरण करता है। ९५८. खेत्तोयं कालोय, करणमिणं साहओ उवाओऽयं। __ कत्त त्ति य जोगि त्ति य, इय कडजोगी वियाणाहि॥
गीतार्थ प्रतिसेवना करते-कराते हुए भी अप्रायश्चित्ती होता है, क्योंकि वह ओजा होता है, अरक्त-द्विष्ट होकर वैसे करता है। ओजा वह होता है जो मध्यस्थ होता है। क्षेत्रौजा-मार्ग आदि में ओजा। कालौजा-दुर्भिक्ष आदि में ओजा। क्षेत्र और काल के अनुसार प्रतिसेवना करने वाला दूषित नहीं होता। गीतार्थ जानता है कि यह करण है-सम्यक् क्रिया है। यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र का साधक उपाय है। जो कर्ता और योगी होता है, उसे कृतयोगी अर्थात् गीतार्थ जानना चाहिए। ९५९. ओयब्भूतो खित्ते, काले भावे य जं समायरइ।
कत्ता उ सो अकोप्पो, जोगीव जहा महावेज्जो॥ जो ओजभूत अर्थात् गीतार्थ होता है वह क्षेत्र, काल और भाव को जानकर जो कुछ समाचरण करता है वह पूर्ण चिंतन करने वाला कर्ता और अकोप्य-अकोपनीय, अदूषणीय होता है। जैसे महावैद्य वैद्यकशास्त्र के अनुसार चिकित्सा करता हुआ योगी-धन्वन्तरी की तरह श्लाघ्य होता है। (धन्वन्तरी ने अष्टांग आयुर्वेद की रचना की। उसका यथा-विधि अध्ययन करने वाला महावैद्य कहलाता है। वह आयुर्वेद के अनुसार चिकित्सा करता हुआ धन्वन्तरी की तरह श्लाघ्य होता है, दूषणभाक नहीं होता। ९६०. अहवण कत्ता सत्था, न तेण कोविज्जती कयं किंचि।
कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी वि नायव्वो॥ अहवण -अथवा कर्ता हैं तीर्थंकर। वे जो कुछ करते हैं, १. ओजा-यो न रागे न द्वेषे किन्तु तुला-दंडवत् द्वयोरपि मध्ये प्रवर्तते स
ओजा भण्यते। (वृ. पृ. ३०२) २. 'अहवण' त्ति अखण्डमव्ययं अथवार्थे वर्तते। (वृ. पृ. ३०३)
१०३ वह सम्यक् ही होता है। इसी प्रकार गीतार्थ भी कर्ता-तीर्थंकर की भांति कर्ता होता है। वह कोपनीय नहीं होता। जैसे तीर्थंकर योगी होते हैं, वैसे ही वह भी योगी होता है, उसे भी योगी जानना चाहिए। ९६१. किं गीयत्थो केवलि, चउब्विहे जाणणे य गहणे य।
तुल्लेऽराग-होसे, अणंतकायस्स बज्जणया। शिष्य ने पूछा-क्या गीतार्थ केवली होता है? आचार्य कहते हैं-हां, वह केवली तुल्य है। द्रव्य आदि के भेद से जो चार प्रकार का ज्ञान है, वह केवली और गीतार्थ दोनों में होता है, एक-अनेक प्रलंबग्रहण विषयक विषम प्रायश्चित्त-दान, दोनों में राग-द्वेष का तुल्य अभाव तथा अनन्तकाय की वर्जना-दोनों करते हैं, दोनों की समान होती है। ९६२. सव्वं नेयं चउहा, तं वेइ जिणो जहा तहा गीतो।
चित्तमचित्तं मीसं, परित्तऽणतं च लक्खणतो।। सारा ज्ञेय चार प्रकार का है-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतः और भावतः। इनको जिन केवली जैसे जानता है वैसे ही गीतार्थ भी जानता है। जैसे केवली सचित्त, अचित्त, मिश्र, परीत्त और अनन्तकाय वनस्पति को लक्षण से जानते हैं, प्ररूपित करते हैं वैसे ही गीतार्थ मुनि भी जानता है, प्ररूपित करता है। ९६३. कामं खलु सव्वन्नू, नाणेणऽहिओ दुवालसंगीतो।
पन्नत्तीइ उ तुल्लो, केवलनाणं जओ मूर्य। यह अनुमत है कि द्वादशांगविद् श्रुतकेवली से सर्वज्ञ ज्ञान की अधिकता से स्तुत्य हैं। किन्तु प्रज्ञप्ति-प्रज्ञापना में दोनों तुल्य हैं। इससे आगे केवलज्ञान मूक है। इसका तात्पर्य है कि श्रुतकेवली के जो अविषयभूत हैं, उनको केवली जान सकता है, परंतु अप्रज्ञापनीय होने के कारण केवली भी उनके विषय में कुछ भी प्रज्ञापना नहीं कर सकते। ९६४. पन्नवणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणभिलप्पाणं।
पन्नवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुअ निबद्धो॥ अनभिलाप्य अर्थात् अप्रज्ञापनीय भावों से प्रज्ञापनीय भाव अनन्तवें भाग में हैं। प्रज्ञापनीय भावों का अनन्तवां भाग श्रुत-निबद्ध है। ९६५. जं चउदसपुव्वधरा, छट्ठाणगया परोप्परं होति।
तेण उ अणंतभागो, पन्नवणिज्जाण जं सुत्तं। ३. काममत्रावधृतार्थे, कामाभिधानमर्थद्वये भवति-कामार्थेऽवधृतार्थे च ।
(वृ. पृ. ३०३)
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