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बृहत्कल्पभाष्यम्
९४५. नक्खेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुद्वितो रुक्खो।
दुच्छेज्जो बहुंतो, सो च्चिय वत्थुस्स भेदाय॥ ९४६. जो य अणुवायछिन्नो, तस्सइ मूलाई वत्थुभेदाय।
अहिनव उवायछिन्नो, वत्थुस्स न होइ भेदाय॥ प्रासाद में तत्काल उगा हुआ वट-पिप्पल आदि वृक्ष को नखों से भी छेदा जा सकता है और जब वह वृक्ष बड़ा हो जाता है तब वह दुश्छेद्य हो जाता है। वह वास्तु अर्थात् प्रासाद को ही भेद देता है।
जो अनुपाय से छेदा जाता है, उसके मूल आदि अनुद्धृत्य रह जाते हैं तो वे भी प्रासाद को भेद डालते हैं। जो वृक्ष अभिनव है, उपाय से छिन्न है, वह प्रासाद-भेद के लिए नहीं होता। ९४७. पडिसिद्ध त्ति तिगिच्छा, जो उ न कारेइ अभिनवे रोगे।
किरियं सो उ न मुच्चइ, पच्छा जत्तेण वि करेंतो॥ ९४८. सहसुप्पइअम्मि जरे, अट्ठम काऊण जो वि पारेइ।
सीयल-अंबदवाणी, न हु पउणइ सो वि अणुवाया॥ कोई मुनि अभिनव रोग में यह सोचकर तत्काल चिकित्सा नहीं कराता क्योंकि मुनि के लिए चिकित्सा कराना प्रतिषिद्ध है, वह मुनि रोग के बढ़ने पर प्रयत्नपूर्वक चिकित्सा कराने पर भी रोग से मुक्त नहीं हो सकता।
इसी प्रकार सहसा उत्पन्न ज्वर में वह तेले की तपस्या कर शीतलकूर (वासी भोजन), आम्लद्रव आदि से पारणा करता है वह भी अनुपाय अर्थात् सही उपाय के अभाव में रोगमुक्त नहीं होता, स्वस्थ नहीं होता। ९४९. संपत्ती य विपत्ती, य होज्ज कज्जेसु कारगं पप्प।
अणुवायतो विवत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं॥ कर्ता के आधार पर कार्य में संपत्ति और विपत्ति आती है। अनुपाय से किए हुए कार्य में विपत्ति आती है और काल और उपाय से किए हुए कार्य की संप्राप्ति-सिद्धि होती है। ९५०. इय दोसा उ अगीए, गीयम्मि उ कालहीणकारिम्मि।
गीयत्थस्स गुणा पुण, होति इमे कालकारिस्स॥ यदि कार्य करने वाला अगीतार्थ हो तो ये सारे दोष होते हैं। गीतार्थ होने पर भी जो काल की हीनता या अधिकता में कार्य करता है तो भी ये ही दोष होते हैं। जो कालकारी गीतार्थ होता है उनमें ये निम्नोक्त गुण होते हैं। ९५१. आयं कारण गाढं, वत्थु जुत्तं ससत्ति जयणं च।
सव्वं च सपडिवक्खं, फलं च विधिवं वियाणाइ॥ आय-लाभ, कारण, आगाढ़ग्लानता, वस्तु, युक्त, सशक्तिक-समर्थ तथा यतना--इन सभी को तथा इनके
प्रतिपक्षी सभी गुणों को गीतार्थ जानता है और वह उनके फल-परिणाम को भी जानता है। ९५२. सुंकादीपरिसुद्धे, सइ लाभे कुणइ वाणिओ चिट्ठ।
एमेव य गीयत्थो, आयं दुटुं समायरइ। यदि वणिक् को शुल्क आदि से परिशुद्ध लाभ होता है तो वह वाणिज्य करने की चेष्टा करता है। इसी प्रकार गीतार्थ मुनि भी ज्ञान आदि का लाभ देखकर प्रतिसेवना करता है। ९५३. असिवाईसुंकत्थाणिएसु किंचिखलियस्स तो पच्छा।
वायण वेयावच्चे, लाभो तव-संजम-ऽज्झयणे॥ प्रतिसेवना के समय गीतार्थ यह सोचता है कि अशिव आदि शुक्लस्थानीय हैं। प्रतिसेवना करने वाला संयमस्थान से स्खलित हो जाता है। किन्तु अशिव आदि के बीतने के पश्चात् वाचना देता हुआ तथा आचार्य आदि की वैयावृत्त्य करता हुआ वह तप, संयम तथा अध्ययन में उद्यम करता हुआ वह लाभ का भागी होता है। प्रतिसेवना की शुद्धि प्रायश्चित्त से हो जाएगी। ९५४. नाणाइतिगस्सऽट्ठा, कारण निक्कारणं तु तव्वज्ज।
अहिडक विस विसूइय, सज्जक्खयसूलमागाढं। गीतार्थ मुनि कारण में ही प्रतिसेवना का समाचरण करता है, निष्कारण नहीं। कारण है-ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इस त्रिपदी के लिए। इनको वर्जित कर जो प्रतिसेवना की जाती है, वह निष्कारण होती है।
सर्प द्वारा डसा जाना, विषमिश्रित भक्तपान कर लेना, विसूचिका का होना, सद्यः क्षयकारी शूल आदि का होना ये सारा आगाढ़ कारण है। चिरघाती रोग अनागाढ़ कारण है। ९५५. आयरियाई वत्थु, तेसिं चिय जुत्त होइ जं जोग्गं ।
गीय परिणामगा वा, वत्थु इयरे पुण अवत्थु। आचार्य, गीतार्थ, परिणामकन्ये वस्तु कहलाते हैं। इनसे इतर अर्थात् प्रतिपक्षभूत दूसरे सभी अवस्तु कहलाते हैं। जो वस्तुभूत हैं वे स्वयं प्रतिसेवना करते हैं अथवा करवाते हैं, वे उसके ज्ञाता होते हैं। इनके लिए जो योग्य भक्त-पान आदि होता है वह युक्त है, उससे विपरीत अयुक्त है। इस युक्तअयुक्त को गीतार्थ ही जान सकता है, दूसरा नहीं। ९५६. धिड सारीरा सत्ती. आय-परगता उतं न हावेति।
जयणा खलु तिपरिरया, अलंभे पच्छा पणगहाणी।। शक्ति दो प्रकार की होती है-धृतिरूप और शारीरिकी। धृतिशक्ति आत्मगत होती है और शारीरिकी शक्ति परगत अर्थात संहननगत होती है। आचार्य अथवा गीतार्थ मुनि उस शक्ति को न्यून नहीं करता।
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