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पहला उद्देशक
९३४. विरइसभावं चरणं, बीयासेवी हु सेसघाती वि। अस्संजमेण लोगो, पुट्ठो जह सो वि हु तहेव ॥ जो बीजसेवी होता है, वह शेष अर्थात् मूल आदि का भी घात करता है। उसके विरति स्वभाव वाला चारित्र नहीं होना जैसे बीज आदि का प्रतिसेवक असंयम से स्पृष्ट होता है वैसे ही प्रलंबसेवी भी असंयम से स्पृष्ट होता है। ९३५. तं चेव अभिहणेज्जा, आवडियं अहव जीहलोलुयता । बहुगाहं भुंजित्ता, विसूचिकाईहिं आयवहो । वृक्ष पर फेंका गया लगुड़ आदि उसी मुनि पर गिर कर उसका हनन कर सकता है। अथवा वह मुनि जिह्वा की लोलुपता के कारण अनेक प्रलंबों को खाकर विसूचिका आदि से ग्रस्त हो सकता है। यह आत्मवध है। ९३६. कस्सेयं पच्छित्तं, गणिणो गच्छं असारविंतस्स । अहवा वि अगीयत्यस्स भिक्खुणो बिसयलोलस्स ॥ शिष्य ने पूछा- प्रलंब आदि अन्यत्र ग्रहण करने पर अनेक प्रायश्चित कहे हैं। वे प्रायश्चित्त किसके आते हैं? आचार्य ने कहा- वे प्रायश्चित्त गच्छ की सारणा वारणा न करने वाले आचार्य के आते हैं। अथवा जो भिक्षु अगीतार्थ और विषयलोलुप है, उसके वे प्रायश्चित्त हैं। ९३७. देसो व सोवसग्गो, वसणी व जहा अजाणगनरिंदो । रज्जं विलुत्तसारं, जह तह गच्छो वि निस्सारो ॥ गच्छ की सारणा नहीं करने वाला आचार्य उपसर्ग सहित होता है, जैसे राज्य की चिंता न करने वाले राजा का देश उपसर्गबहल और व्यसनी हो जाता है। जैसे अज्ञायक राजा का परित्याग कर दिया जाता है, उसी प्रकार वैसे आचार्य का परित्याग कर देना चाहिए। जैसे राजा द्वारा अरक्षित राज्य साररहित हो जाता है, वैसे ही असारित गच्छ भी निस्सार हो जाता है।
९३८, ओमोदरिया व जहिं, असिवं च न तत्थ होइ गंतव्यं ।
उप्पन्ने न वसियव्वं, एमेव गणी असारणीओ ॥ जिस देश में अवमोदरिका, अशिव आदि होते हैं वहां नहीं जाना चाहिए। जिस देश में अवमोदरिका, अशिव आदि रहते हैं तो वहां नहीं रहना चाहिए। इसी प्रकार गच्छ की सारणा से विकल गणी का अनुगमन नहीं करना चाहिए।
९३९, सत्तण्हं वसणाणं, अन्नयरजुतो न जाणई रज्जं ।
अंतेउरे व अच्छइ, कज्जाई सयं न सीलेइ ॥ जो राजा सात व्यसनों में से किसी एक व्यसन से भी युक्त होता है तो वह राज्य का परिपालन करना नहीं जानता । वह अंतःपुर में ही समय बिताता है तथा स्वयं कार्य का
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परिशीलन नहीं करता, उस राज्य की प्रजा उच्छृंखल हो जाती है।
९४० इत्यी जूयं मज्नं, मिगव्य वयणे तहा फरुसया य दंडफरुसत्तमत्थस्स दूसणं सत्त बसणाई ॥ सात व्यसन ये हैं-स्त्रीव्यसन, चुतव्यसन, मद्यव्यसन, मृगयाव्यसन, वचनपरुषताव्यसन, दंडपारुष्यव्यसन, अर्थदूषणव्यसन ।
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९४१. अहवा वि अगीयत्थो, गच्छं न सारेइ इत्थ चउभंगो। बिइए अगीयदोसो, ततो न सारेतरो सुखो ॥ अथवा अगीतार्थ गच्छ की सारणा नहीं करता, इस संबंध में चतुर्भंगी होती है
१. अगीतार्थ गच्छ की सारणा नहीं करता।
२. अगीतार्थ गच्छ की सारणा करता है। ३. गीतार्थ गच्छ की सारणा नहीं करता । ४. गीतार्थ गच्छ की सारणा करता है।
प्रथम भंग में दो दोष-अगीतार्थत्वदोष, असारणत्वदोष । द्वितीय मंग में एक दोष-अगीतार्थत्वदोष । तृतीय भंग में एक दोष - असारणत्वदोष । चतुर्थ भंग - शुद्ध है।
९४२. देसो व सोवसग्गो, पढमो तइओ तु होइ वसणी वा ।
बिहओ अजाणतुल्लो, सारो दुविहो बुहेलेको ।। प्रथम भंगवर्ती आचार्य सोपसर्ग देश की भांति परित्याज्य है। तृतीय भंगवर्ती आचार्य व्यसनी राजा की भांति परिहर्तव्य है। द्वितीय भंगवर्ती आचार्य भी अज्ञनरेन्द्र की भांति त्याज्य है।
सार दो प्रकार का होता है-लौकिक और लोकोत्तर । ये दोनों दो-दो प्रकार के हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । ९४३. गो-मंडल - धन्नाई, बज्झो कणगाइ अंतो लोगम्मि ।
लोगुत्तरिओ सारी, अंतो बहि नाण - बत्थाई ॥ गोवर्ग, मंडल- देश का खंड, धान्य आदि - यह लौकिक बाह्यसार है। कनक आदि लौकिक अन्तः सार है। लोकोत्तर सार भी दो प्रकार का है-अन्तर् और बाह्य । अन्तर सार है ज्ञान आदि और बाह्यसार है-वस्त्र आदि।
९४४. सुहसाहगं पि कज्जं, करणविहूणमणुवायसंजुत्तं ।
अन्नायस काले, विवत्तिमुवजाति सेहस्स ॥ सुखसाध्य कार्य भी यदि करण अर्थात् प्रयत्न विहीन होता है या अनुपाय से संयुक्त होता है, या कार्य अज्ञात हो, अदेश-काल-अनवसर में उसको किया जाए तो शैक्ष अर्थात् अज्ञ व्यक्ति के लिए वह विपत्ति का कारण बनता है, वह कार्य सिद्ध नहीं होता।
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