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________________ १०० बृहत्कल्पभाष्यम् महाजनों के समक्ष उसका तिरस्कार कर उसे विसर्जित कर दिया। इस स्थिति में उसे मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ९२३. एस उ पलंबहारी, सहोढ गहिओ पलंबठाणेसु। सेसाण वि छाघाओ, सविहोढ विलंबिए होइ॥ वह प्रलंबस्वामी लोगों को एकत्रित कर कहता है-'यह प्रलंब चोर है। मैंने इसको प्रलंब-स्थानों में रंगे हाथों पकड़ा है। इस प्रकार 'सविहोढ'-उसकी जिस प्रकार जुगुप्सा हो वैसे करते हुए उसकी विडंबना की जाती है। इस विडंबना से शेष साधुओं का प्रभाभंश होता है। लोक मानने लग जाते हैं कि सभी साधु ऐसे ही होते हैं। ९२४. अवराहे लहुगतरो, आणाभंगम्मि गुरुतरो किह णु। आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु॥ शिष्य ने पूछा-अपराध होने पर लघुतर दंड पहले कहा गया है। अब आज्ञाभंग में चतुर्गरुक का दंड कहा है। यह कैसे? आचार्य कहते हैं-आज्ञा में ही चारित्र है। आज्ञाभंग में क्या-क्या भंग नहीं होता, सब कुछ भग्न हो जाता है, अतः आज्ञाभंग गुरुतर दोष है। ९२५. सोऊण य घोसणयं, अपरिहरंता विणास जह पत्ता। एवं अपरिहरंता, हियसव्वस्सा उ संसारे॥ राजा की घोषणा को सुनकर जो निवारित प्रयोजन का परिहार नहीं करता, वह विनाश को प्राप्त होता है। इसी प्रकार तीर्थंकर द्वारा निषिद्ध का परिहार न करने वाले मुनि का सर्वस्व अपहृत हो जाता है और वह संसार में दुःख पाता है। ९२६. छ प्पुरिसा मज्झ पुरे, जो आसादेज्ज ते अजाणतो। __ तं दंडेमि अकंडे, सुणेतु पउरा! जणवया! य॥ ९२७. आगमिय परिहरंता, निद्दोसा सेसगा न निद्दोसा। जिणआणागमचारि, अदोस इयरे भवे दंडो॥ एक राजा ने यह घोषणा करवाई-ये छह पुरुष मेरे पुर में हैं। जो अजानकारी में इनकी आशातना करेगा, पीड़ा पहुंचाएगा, मैं अकाल में, बिना किसी कारण उनको दंडित करूंगा। हे पुरवासियो! हे देशवासियो! यह तुम सुनो। इस घोषणा के अनुसार जो लोग उन छहों पुरुषों की आशातना का परिहार करते हैं वे निर्दोष हैं। शेष लोग जो आशातना का परिहार नहीं करते, वे निर्दोष नहीं हैं, वे दंडित होते हैं। इसी प्रकार जो मुनि जिनाज्ञा के अनुसार आगम का परिज्ञान कर संयम का पालन करता है, वह निर्दोष है, दूसरों के लिए भव-संसार में दुःखरूप दंड ज्ञातव्य है।। ९२८. एगेण कयमकज्जं, करेइ तप्पच्चया पुणो अन्नो। सायाबद्दल परंपर, वोच्छेदो संजम-तवाणं॥ १. सहोढः-सलोप्त्रः-चुराई हुई वस्तु के साथ रंगेहाथों। (वृ. पृ. २९२) एक मुनि यदि अकार्य करता है तो उसके आधार पर दूसरे भी अकार्य में प्रवृत्त होते हैं। सातबहुल प्राणियों की इस परंपरा से संयम और तप का व्यवच्छेद हो जाता है। ९२९. मिच्छत्ते संकाई, जहेय मोसं तहेव सेसं पि। मिच्छत्तथिरीकरणं, अब्भुवगम वारणमसारं॥ मिथ्यात्व के प्रसंग में शंका आदि दोष वक्तव्य हैं। लोगों में यह चित्तविप्लुति हो जाती है कि जैसे इन मुनियों का यह व्रत मिथ्या है वैसे ही सारे व्रत मिथ्या हैं। लोगों में मिथ्यात्व का स्थिरीकरण हो जाता है। कोई धर्मग्रहण करने के लिए उद्यत होता है, उसका वारण किया जाता है और लोग मानने लग जाते हैं कि इनका प्रवचन असार है। ९३०.तं काय परिच्चयई, नाणं तह दंसणं चरित्तं च। बीयाईपडिसेवग, लोगो जह तेहिं सो पुट्ठो॥ जो मुनि प्रलंब का ग्रहण करता है वह उस काय अर्थात् वनस्पति के ज्ञान के साथ-साथ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का परित्याग कर देता है। बीज आदि का प्रतिसेवन करने वाले लोग जैसे असंयम से स्पृष्ट होते हैं, वैसे ही प्रलंबसेवी वह मुनि भी असंयम से स्पृष्ट होता है। ९३१. कायं परिच्चयंतो, सेसे काए वए वि सो चयई। णाणे णाणुवदेसे, अवट्टमाणो, उ अन्नाणी॥ प्रलंब ग्रहण करने वाला वनस्पतिकाय (के ज्ञान) का परित्याग कर देता है वैसे ही वह शेष कायों तथा व्रतों का भी परित्याग कर देता है। ज्ञान का परित्याग कर देने पर ज्ञानोपदेशक्रिया में अप्रवर्तमान वह ज्ञानी भी अज्ञानी होता है। ९३२. सण-चरणा मूढस्स नत्थि समया व नत्थि सम्मं तु। विरईलक्खण चरणं, तदभावे नत्थि वा तं तु॥ ज्ञान के अभाव में वह मूढ़ होता है। मूढ़ व्यक्ति के दर्शन और चारित्र नहीं होता। उसमें प्राणियों के प्रति समता भी नहीं होती। समता के अभाव में सम्यक्त्व भी नहीं होता। चरण होता है विरा लक्षण वाला। इस लक्षण के अभाव में उसमें चारित्र ही नहीं होता। ९३३. पाएण बीयभोई, चोयग! पच्छाणुपुब्वि वा एवं। जोणिग्घाते व हतं, तदादि वा होइ वणकाओ॥ लोग प्रायः बीजभोजी होते हैं। हे शिष्य! यह कथन पश्चानुपूर्वी से भी होता है। बीज वनस्पति की योनि है। उसके घात से, विनाश से, मूल आदि सारा हत हो जाता है, क्योंकि 'तदादि' बीज ही आदि है उसका, अर्थात् वनस्पतिकाय का बीज ही आदि है। २. दृष्टांत के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. ४१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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