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पहला उद्देशक
खोल्ल-कोटर में, त्वक छाल आदि में रजें होती हैं। बींधा जाता है, बिच्छु, सर्प आदि से डसा जा सकता है, अतः पृथ्वीकाय की विराधना होती है। महिका और पक्षी-तरक्ष आदि का वध हो सकता है। यदि वृक्ष अवश्याय-ओस आदि के कारण अप्काय की विराधना, देवताधिष्ठित हो तो मुनि क्षिप्तचित्त हो जाता है। अथवा वनवह्नि के कारण दरदग्ध वृक्ष में अग्निकाय की विराधना, देवता उस मुनि को समाप्त कर देता है। अथवा वह देवता वहीं वायुकाय की विराधना, प्रलंब आदि के कारण आरोहण करने वाले उस मुनि को वृक्ष से नीचे गिरा देता है। वनस्पतिकाय की विराधना तथा कृमि, कीट, पक्षी इन त्रस उससे छहकाय की विराधना होती है। मुनि के अंग-उपांग प्राणियों की भी विराधना होती है।
भग्न हो जाते हैं। जीवों के संघट्टन से वही आरोपणा ९१३. अप्पत्ते जो उ गमो, सो चेव गमो पुणोपडतम्मि। प्रायश्चित्त है। आत्मविराधना में ग्लानविषयक परितापनिका
सो चेव य पडियम्मि वि, निक्कंपे चेव भोमाई॥ आदि से निष्पन्न वही आरोपणा प्रायश्चित्त ज्ञातव्य है। जो फेंके गए काष्ठ आदि के अप्रास का 'गम'-प्रकार है, ९१८. मरण-गिलाणाईया, जे दोसा होति दूहमाणस्स। वही 'गम' पुनः गिरते हुए के विषय में है। वही 'गम' भूमी ते चेव य सारुवणा, पवडते होंति दोसा उ॥ पर गिरे हुए के विषय में जानना चाहिए। जो फेंका गया काष्ठ वृक्ष पर चढ़ते हुए मुनि के जो मरण, ग्लानत्व आदि दोष आदि अत्यंत भारी होने के कारण पृथ्वी पर निष्प्रकंप रूप में होते हैं, वे ही दोष वृक्ष से गिरने पर होते हैं। तत्संबंधी गिरता है, उससे पृथ्वी आदि की महती विराधना होती है। आरोपणा सहित प्रायश्चित्त वक्तव्य है। ९१४. एवं दव्वतो छण्हं, विराधओ भावओ उ इहरा वि। ९१९. तंमूल उवहिगहणं, पंतो साहूण कोइ सव्वेसिं।
चिज्जइ हु घणं कम्मं, किरियग्गहणं भयनिमित्तं॥ तण-अग्गिगहण परितावणा य गेलन्न पडिगमणं ।। इस प्रकार वह मुनि द्रव्यतः छह जीवनिकायों का जिसके अधिकार में वे प्रलंब हैं, वही व्यक्ति प्रलंब ग्रहण विराधक होता है। द्रव्यतः हिंसा न होने पर भी वह करने वाले मुनि की उपधि का अपहरण कर लेता है अथवा भावतः षट्काय विराधक होता है, क्योंकि वह संयम के प्रति कोई प्रान्त व्यक्ति सभी साधुओं की उपधि का अपहरण कर निरपेक्ष है। भावतः प्राणातिपात से वह निबिड कर्मों का लेता है। वस्त्र के अभाव में मुनि के तृणग्रहण, अग्निसेवन, उपचय करता है। गा. ९१० में जो कहा गया कि वह पांच परितापना, ग्लानत्व तथा प्रतिगमन-ये दोष होते हैं। क्रियाओं से स्पृष्ट होता है, यह कथन भय के निमित्त कहा ९२०.तणगहण अग्गिसेवण, लहगा गेलन्ने होइ तं चेव। गया है।
____ मूलं अणवठ्ठप्पो, दुग तिग पारंचिओ होइ॥ ९१५. कुवणय पत्थर लेट्ट, पुव्वच्छूढे फले व पवडंते। जो तृणग्रहण करता है अथवा अग्नि का सेवन करता है
पच्चुप्फिडणे आया, अच्चायाम य हत्थाई। उसको चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। जो ग्लान मुनि अग्नि किसी प्रलंबार्थी ने पहले भी वृक्ष पर 'कुवणय'-लकड़ी का सेवन करता है उसको भी वही प्रायश्चित्त है। एक फेंकी थी। वह किसी शाखा में अटक गई। अब जब साधु ने प्रलंब । अवधावन करता है तो मूल, दो अवधावन करते हैं तो ग्रहण करने के लिए काष्ठ आदि फेंका तो पूर्वक्षिप्त लकड़ी उस अनवस्थाप्य और तीन अवधावन करते हैं तो पारांचिक। पर आकर गिर सकती है। इसी प्रकार पूर्वक्षिस पत्थर या लेष्टु ९२१. अपरिग्गहिय पलंबे, अलभंतो समणजोगमुक्कधुरो। (ईंट का टुकड़ा) गिर सकता है अथवा फल गिर सकता है। रसगेहीपडिबद्धो, इतरे गिण्हंतो गहिओ य॥ पूर्वक्षिप्त लकड़ी आदि के गिरने से आत्मविराधना होती है तथा जो मुनि श्मण के व्यापारभार से मुक्त हो गया है, वह हाथ को बहुत ऊंचा कर कुछ फेंकने से परितापना होती है। ये अपरिगृहीत प्रलंब का लाभ न होने पर, रसगृद्धि से प्रतिबद्ध सारे दोष क्षेपण से संबंधित हैं।
होकर परिगृहीत प्रलंब लेते हुए प्रलंबस्वामी द्वारा पकड़ा ९१६. खिवणे वि अपावंतो, दुरुहइ तहिं कंट-विच्छु-अहिमाई। जाता है।
पक्खि-तरच्छाइवहो, देवयखेत्ताइकरणं च॥ ९२२. महजणजाणणया पुण, सिंघाडग-तिग-चउक्क-गामेसु। ९१७. तत्थेव य निट्ठवण, अंगेहिं समोहएहिं छक्काया। उड्डहिऊण विसज्जिते, महजणणाए ततो मूलं॥
आरोवण स च्चेव य, गिलाणपरितावणाईया।। प्रलंबस्वामी उसे पकड़ कर शृंगाटक, त्रिक, चतुष्क कुछ फेंकने पर भी यदि प्रलंब प्राप्त नहीं होता है तो वह स्थानों पर गांव में ले जाकर गांव के महाजनों को यह ज्ञापित मुनि वृक्ष पर आरोहण करता है। चढ़ते हुए वह कांटों से करता है कि 'इसने प्रलंबों की चोरी की है। इस प्रकार १. खोल्लं ति देशीशब्दत्वात् कोटरम्।
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