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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् शुषिरतृणग्रहण करने पर चतुर्लघु और अशुषिरतृणग्रहण और पतन-ये सारे द्वार पूर्ववत् जानने चाहिए। जो नानात्व है में मासलघु। अग्नि का सेवन करने पर स्वस्थान प्रायश्चित्त वह मैं संक्षेप में कहूंगा। अर्थात चतुर्लघु, अभिनव अग्नि का प्रज्वलन करने पर मूल। ९०८.तं सच्चित्तं दुविहं, पडियाऽपडियं पुणो परित्तियरं। उद्गमादि दोषदुष्ट वस्वैषणा से तथा उसके ग्रहण से पडितऽसति अपावंते, छुभई कट्ठाइए उवरिं। तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त आता है। उपधि के अभाव में पृथ्वी सचित्त के दो प्रकार हैं-पतित और अपतित। इन दोनों के आदि कायों की विराधना होती है, श्रुत का नाश होता है, दो-दो भेद हैं-परीत और अनन्त। पतित-भूमी पर गिरे हुए किसी का मरण भी हो सकता है और कोई मुनि अवधावन प्रलंब के अभाव में, जो वृक्ष पर लटक रहा है परंतु हाथ से नहीं भी कर सकता है। मरण होने पर पारांचिक और अवधावन तोड़ा जा सकता, उस प्रलंब को नीचे गिराने के लिए वह काठ करने पर मूल, दो के अवधावन में अनवस्थाप्य और तीन के के टुकड़े आदि को ऊपर फेंकता है। अवधावन में पारांचिक। ९०९. सजियपयट्टिए लहुगो, सजिए लहुगा य जत्तिया गाहा। ९०४. गेण्हण गुरुगा छम्मास कवणे छेदो होइ ववहारे। गुरुगा होति अणते, हत्थप्पत्तं तु गेण्हते॥ पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण विरुंगणे नवमं॥ जो मुनि सजीववृक्ष पर प्रतिष्ठित पक्व फल लेता है उसे ९०५. उद्दवणे निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची। मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। वृक्ष पर प्रतिष्ठित सजीव अणवट्ठप्पो दोसु य, दोसु य पारंचिओ होइ॥ ____ फल लेता है तो चतुर्लघु। वह जितने ग्राह-बाहुक्षेप करता है यदि मुनि को प्रलंब ग्रहण करते हुए प्रलंबस्वामी देखकर उतने चतुर्लघु प्रायश्चित्त हैं। यह प्रत्येक वनस्पति के लिए है। उसको पकड़ ले तो चतुर्गुरुक, आकर्षण करने पर अनन्त वनस्पति में ये सारे प्रायश्चित्त गुरु हो जाते हैं। यह षड्गुरुमास, व्यवहार न्यायपालिका में ले जाने पर छेद, सारा प्रायश्चित्त भूमी पर स्थित मुनि हस्तप्राप्त प्रलंब को व्यवहार में यदि वह पश्चात्कृत-पराजित हो जाता है तो वृक्ष से तोड़ता है, उसके लिए है। मूल, चौराहे आदि पर 'यह प्रलंब चोर है' ऐसी घोषणापूर्वक ९१०. छुभमाण पंचकिरिए, पुढवीमाई तसेसु तिसु चरिमं । उसकी भर्त्सना होने पर तथा व्यंगन-हाथ पैर आदि काटे तं काय परिच्चयई, आवडणे अप्पगं चेव ।। जाने पर नौवां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। राजा द्वारा जो प्रलंब आदि लेने के लिए काष्ठ आदि वृक्ष पर फेंकता अपद्रावित अथवा देशनिष्काशन किए जाने पर अथवा राजा है वह पांच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। पृथ्वी आदि जीवों के एक साधु पर अथवा अनेक साधुओं पर प्रद्विष्ट हो जाए तो संघट्टन आदि होने पर यथास्थानप्रास प्रायश्चित्त। पंचेन्द्रियपारांचिक तथा उद्दहन तथा व्यंगन-दोनों करने पर रूप बस का व्यापादन होने पर चरम अर्थात् पारांचिक अनवस्थाप्य तथा अपद्रावण और देशनिष्काशन दोनों करने प्रायश्चित्त। काष्ठ आदि फेंकने पर वह वनस्पति अपनी काय पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। को छोड़ देती है अर्थात् वह वृक्ष से टूटकर नीचे आ गिरती ९०६. आराम मोल्लकीए, परतित्थिय भोइएण गामेण। है। उस वृक्ष पर निक्षिप्त काष्ठ या पत्थर उस मुनि पर आकर वणि-घड-कुडुंबि-राउलपरिग्गहे चेव भहितरा॥ गिर सकता है। वह आराम स्वयं अपना हो सकता है अथवा निम्न ९११. पावंते पत्तम्मि य, पुणोपडते अ भूमिपत्ते अ। व्यक्तियों से मूल्य द्वारा क्रीत हो सकता है-१. परतीर्थिक, रय-वास-विज्जुयाई, वाय-फले मच्छिगाइ तसे।। २. भोगिक, ३. ग्राम, ४. वणिक ५. घटी-गोष्ठी, वृक्ष को लक्ष्य कर हाथ से फेंका हुआ काष्ट या पत्थर जब ६. कौटुंबिक, ७. आरक्षिक, ८. राजा, (राजकुल शब्द से तक वृक्ष को नहीं लगता तब तक वह 'प्राप्नुवद्' कहलाता है आरक्षिक और राजा-दोनों गृहीत हैं।) यहां भी भद्रक तथा । तथा वृक्ष को प्राप्त कर भूमी पर पुनः गिरता है तब इतर-प्रान्तकृत सारे दोष वक्तव्य हैं। षट्कायविराधना होती है। जैसे-रज आदि पृथ्वीकाय, वर्षा का ९०७. एमेव य सच्चित्ते, छुभणा आरोहणा य पडणा य।। उदक आदि अप्काय, विद्युद् आदि तैजस्काय, वायु, फल, ___जं इत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ तथा मक्षिका आदि त्रसकाय की विराधना होती है। जैसे इसी प्रकार सचित्त प्रलंब के विषय में भी गा. ८६६ से ९१२.खोल्ल-तयाईसु रओ, महि-वासोस्साइ अग्गि दरदड्ढे। प्रारंभ कर गा. ९०६ तक जानना चाहिए। प्रक्षेपण, आरोहण तत्थेवऽनिल वणस्सइ, तसा उ किमि-कीड-सउणाई।। १. पांच क्रियाएं-(१) कायिकी (२) आधिकरणिकी (३) प्रादेषिकी (४) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातक्रिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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