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________________ पहला उद्देशक मनुष्यपरिगृहीत और तिर्यकपरिगृहीत। देवपरिगृहित के तीन ८९८. धी मुंडितो दुरप्पा, धिरत्थु ते एरिसस्स धम्मस्स। प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। व्यन्तरगृहीत जघन्य अन्नत्थ वा वि लब्भिसि, मुक्को सि खरंटणा एसा।। होता है, भवनपति और ज्योतिष्कपरिगृहीत मध्यम और हे मुंडित दुरात्मा! तुझे धिक्कार है। तुम्हारे इस प्रकार वैमानिकपरिगृहीत उत्कृष्ट होता है। जघन्यपरिगृहीत का के धर्म को धिक्कार है! मैं तुम्हें छोड़ देता हूं, परन्तु तुम प्रलंब लेने पर चतुर्लघु, मध्यम का चतुर्गुरु तथा उत्कृष्ट का अन्यत्र भी विडंबना पाओगे। यह खरंटणा है। षड्लघु। अथवा तीनों का षडलघु ही प्रायश्चित्त है। जघन्य में ८९९. आमफलाणि न कप्पंति तुम्ह मा सेसए वि दूसेहि। तपोलघु कालगुरु, मध्यम में काललघु तपोगुरु तथा अन्त्य मा य सकज्जे मुज्झसु, एमाई होउवालंभो। अर्थात् उत्कृष्ट में दोनों गुरु अर्थात् तप और काल-दोनों गुरु। अपक्व फल आपको लेने नहीं कल्पते। दूसरे साधुओं को ८९३. सम्मेतर सम्म दुहा, सम्मे लिंगि लहु गुरुओ गिहिएसुं। तुम कलंकित मत करो। तुम अपने कार्य में मूढ़ मत बनो। मिच्छा लिंगि गिही वा, पागय-लिंगीसु चउलहुगा। यह उपालंभ है। ८९४. गुरुगा पुण कोडुबे, छल्लहुगा होति दंडियारामे। ९००. कर-पाय-दंडमाइसु, पंतावणगाढमाइ जा चरिमं । तिरिया य दुट्ठ-ऽदुट्ठा, दुढे गुरुगाइरे (गेयरे) लहुगा॥ अप्पो अ अहाजाओ, सव्वो दुविहो वि जं च विणा॥ मनुष्य परिगृहीत के दो प्रकार हैं-सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत और हाथ, पैर, दंड आदि से प्रहार करना प्रांतापना है। मिथ्यादृष्टिपरिगृहीत। सम्यग्दृष्टिपरिगृहीत के दो प्रकार हैं- अनागाढ़ परितापना आदि में पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त है। लिंगस्थपरिगृहीत और गृहस्थपरिगृहीत। लिंगस्थ-परिगृहीत में अल्प अर्थात् यथाजात उपधि (निषद्याद्वय, रजोहरण, मुखमासलाघु और गृहस्थपरिगृहीत में मासगुरु। मिथ्यादृष्टि वस्त्रिका, चोलपट्टक) का अथवा सर्व उपधि का (दस प्रकार परिगृहीत के दो भेद हैं-लिंगीपरिगृहीत और गृहीपरिगृहीत। की उपधि का) अपहरण कर लिया जाता है। अथवा उपधि गृहीपरिगृहीत के तीन भेद हैं-प्राकृत-परिगृहीत, कौटुंबिक- के दो प्रकार हैं-ओघउपधि और औपग्रहिकउपधि। परिगृहीत तथा दंडिकपरिगृहीत। प्राकृत और लिंगी परिगृहीत इनका अपहरण हो जाता है। तब उपधि के बिना प्रायश्चित्त में चतुर्लघुक, कौटुंबिकपरिगृहीत में चतुर्गुरुक। दंडिक के आता है। आराम में षड्लघु। तिर्यंच दो प्रकार के होते हैं-दुष्ट और अदुष्ट। ९०१. लहुगा अणुग्गहम्मी, अप्पत्तिय गुरुग तीसु ठाणेसु। दुष्टतिर्यगपरिगृहीत में चतुर्गुरुक तथा अदुष्ट में चतुर्लघुक। पंतावणे चउगुरुगा, अप्प बहुम्मी हिए मूलं ।। ८९५. भइतर सुर-मणुया, भद्दो घिप्पंति दट्टणं भणइ। जिसके द्वारा परिगृहीत का आराम है, वह यदि साधु ____ अन्ने वि साहु ! गिण्हसु, पंतो छण्हेगयर कुज्जा॥ द्वारा प्रलंब ग्रहण करने पर अनुग्रह मानता है तो चतुर्लघु, जिस देव या मनुष्य द्वारा परिगृहीत वह आराम है, वह यदि अप्रीति करता है तो चतुर्गुरुक अथवा प्रतिषेध, खरंटना देव या मनुष्य भद्र या प्रान्त हो सकता है। साधु को प्रलंब और उपालंभ-ये तीन स्थान होते हैं तो प्रत्येक के चतुर्गुरुक। ग्रहण करते हुए देखकर भद्र कहता है-हे साधो! अन्य प्रलंब प्रान्तापना में चतुर्गुरुक तथा अल्प या बहुत उपधि का हरण भी तुम ग्रहण करो। जो प्रान्त होगा वह निम्नोक्त छह प्रकारों करने पर मूल प्रायश्चित्त है। में से एक करेगा। ९०२. परितावणाइ पोरिसि, ठवणा महय मुच्छ किच्छ कालगए। ८९६. पडिसेहणा खरंटण, उवलभ पंतावणा य उवहिम्मि। मास चउ छच्च लहू गुरु, छेओ मूलं तह दुगं च।। गिण्हण-कढण - ववहार - पच्छकडुड्डाह - निव्विसए। परितापना होने पर मुनि सूत्रपौरुषी या अर्थपौरुषी नहीं प्रतिषेधना, खरंटणा, उपालंभ, प्रान्तापना, उपधिहरण कर सकता। उसका क्रमशः प्रायश्चित्त है मासलध और तथा ग्रहण-आकर्षण-व्यहार-पश्चात्कृत-उड्डाह-निर्विषय- मासगुरु। सूत्र का नाश करने पर चतुर्लघु, अर्थ का नाश यह छठा है। (इसकी व्याख्या आगे।) करने पर चतुर्गुरु। प्राशुक की स्थापना करने पर चतुर्लघु, ८९७. गहियं तं गहियं, बिइयं मा गिण्ह इरइ वा गहियं।। अप्राशुक में चतुर्गुरू, प्रत्येक वनस्पति की स्थापना में जायसु ममं व कज्जे, मा गिण्ह सयं तु पडिसेहो॥ चतुर्लघु, अनन्तकायिक में चतुर्गुरु। महान् दुःख होने पर वह कहेगा-जो प्रलंब ले लिया, वह ले लिया, दूसरी बार षडलघु, मूर्छा में षड्गुरु, कृच्छप्राण में छेद, कृच्छश्वास में मत लेना। अथवा वह उसके हाथ से वह प्रलंब छीन लेगा। मूल और कालगत होने पर पारांचिक। वह कहेगा यदि आवश्यकता हो तो मेरे से मांग कर लो, ९०३. तणगहणे झुसिरेतर, अग्गी सट्ठाण अभिनवे जं च। स्वयं ग्रहण मत करो। यह प्रतिषेधना है। एसणपेल्लण गहणे, काया सुत मरण ओहाणे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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