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________________ ९६ बृहत्कल्पभाष्यम् जहां दिवस में लघुक है, वहीं रात्री में गुरुक और जहां हैं। सहाय-सहित जाने पर, सहायक के ये भेद होते हैं यतगुरुक हैं वहां कालगुरु ज्ञातव्य है। जहां छेद लघुक है वहां संयत, अयत-असंयत, नपुंसक, गृहस्थस्त्री तथा साध्वी। छेद गुरुक जानना चाहिए। रात्री में यह काल विषयक ८८६. संविग्गाऽसंविग्गा, गीया ते चेव होति अग्गीया। आरोपणा है। लहुगा दोहि विसिट्ठा, तेहिं समं रत्ति गुरुगा उ॥ ८८१. कंट-ऽट्टि खाणु विज्जल, विसम दरी निन्न मुच्छ-सूल-विसे। संविग्न, असंविग्न, गीतार्थ, अगीतार्थ के साथ जाने पर वाल-ऽच्छभल्ल-कोले, सीह-विग-वराह-मेच्छित्थी॥ लघुक प्रायश्चित्त-दो से विशिष्ट अर्थात् तप और काल से ८८२. तेणे देव-मणुस्से, पडिणीए एवमाइ आयाए। गुरु। इनके साथ रात्री में जाने पर तप और काल से विशेषित मास चउ छच्च लहु गुरु, छेदो मूलं तह दुगं च॥ चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। कोट्टकादि में जाता हुआ मुनि कांटों से, लकड़ी के टुकड़े ८८७. अस्संजय-लिंगीहिं उ, पुरिसागिइपंडएहिं य दिवा उ। से पैर में विद्ध हो सकता है, कीचड़ तथा विषम स्थान में, अस्सोय सोय छल्लहु, ते चेव उ रत्ति गुरुगा उ॥ खाई में, गढ़े में गिर कर मूर्छित हो सकता है, शूल चल असंयत, लिंगी-अन्यतीर्थिक, पुरुषाकृतिवाले नपुंसक-ये सकती है, विषकंटक से विद्ध हो सकता है, विषफल खा तीनों शौचवादी और अशौचवादी-दोनों होते हैं। इनके साथ सकता है, सर्प, भालू, शूकर, सिंह, वृक, वराह, म्लेच्छ दिन में जाने पर षडलघु और रात्री में जाने पर षड्गुरु। पुरुष अथवा कोई स्त्री-ये उसे उपद्रुत कर सकते हैं। शेर, ८८८. पासंडिणित्थि पंडे, इत्थीवेसेसु दिवसतो छेदो। देव अथवा शत्रु, अन्य मनुष्य उसको पीड़ित कर सकते हैं। तेहिं चिय निसि मूलं, दिय-रत्ति दुगं तु समणीहिं॥ यह आत्मविराधना है। (इनका प्रायश्चित्त यह है) कंटकादि से पाषण्डिनी-परिवाजिका, गृहस्थस्त्री, स्त्रीवेशधारी परितप्त होने पर चतुर्लघु, अत्यधिक परितप्त होने पर नपुंसक-इनके साथ दिन में जाने पर छेद, रात्री में जाने पर चतुर्गुरुक, महान् दुःख होने पर षड्लघु, मूर्छा या अमूर्छा मूल। श्रमणियों के साथ दिन में जाने पर अनवस्थाप्य और में षड्गुरु, कृच्छ्रप्राणनाश होने पर छेद, कृच्छ्रश्वासोश्वास रात्री में जाने पर पारांचिक प्रायश्चित्त है। में मूल, मारणांतिक समुद्घात में अनवस्थाप्य, कालगत होने ८८९. अहवा समणा-ऽसंजय-अस्संजइ-संजईहिं दियराओ। पर पारांचिक। चत्तारि छच्च लहु गुरु, छओ मूलं तह दुगं च॥ ८८३. कंट-ऽट्ठिमाइएहिं, दिवसतो सव्वत्थ चउगुरू होति। अथवा श्रमणों के साथ दिन में जाने पर चतुर्लघु, रात्री में रत्तिं पुण कालगुरु, जत्थ व अन्नत्थ आयवहो॥ जाने पर चतुर्गुरु। असंयतों के साथ दिन में षडलघु, रात्री में आत्मविराधना में सामान्य प्रायश्चित्त-कंटक, स्थाणु षड्गुरु। असंयतियों के साथ दिन में छेद, रात्री में मूल। आदि से परितप्त होने पर दिन में चतुर्गुरु, रात्री में चतुर्गुरु श्रमणियों के साथ दिन में अनवस्थाप्य, रात्री में पारांचिक। कालगुरु हो जाते हैं। जहां कहीं आत्मवध होता है, सर्वत्र ८९०. जह चेव अन्नगहणेऽरण्णे गमणाइ वणियं एयं। चतुर्गुरु प्रायश्चित्त है। तत्थगहणे वि एवं, पडियं जं होइ अच्चित्तं॥ ८८४. पोरिसिनासण परिताव ठावणं तेण देह उवहिगतं। जैसे अन्यत्रग्रहण, अरण्यविषयक गमन आदि में जो दोष पंतादेवयछलणं, मणुस्सपडिणीयवहणं च॥ तथा प्रायश्चित्त का वर्णन किया है, वही तत्रग्रहण तथा पतित सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी का नाश होने पर क्रमशः अचित्त प्रलंब के ग्रहण में जानना चाहिए। चतुर्लघु और चतुर्गुरु, परिताप होने पर चतुर्लघु और ८९१. तत्थग्गहणं दुविहं, परिग्गहमपरिग्गहं दुविहभेयं । चतुर्गुरु, अनाहार स्थापना में चतुर्लघु और आहार-स्थापना दिट्ठादपरिग्गहिए, परिगहिएँ अणुग्गहं कोई॥ में चतुर्गुरु। स्तेन दो प्रकार के होते हैं-देहस्तेन और तत्रग्रहण के दो प्रकार हैं-परिग्रह (देवता द्वारा परिगृहीत), उपधिस्तेन। देहस्तेन द्वारा एक साधु का अपहरण किया जाए अपरिग्रह। इन दोनों के दो-दो भेद हैं-सचित्त, अचित्त। जो तो मूल, साथ में उपधि का अपहरण होने पर अनवस्थाप्य, अपरिगृहीत अचित्त का ग्रहण करता है उसके (गाथा ८६६) के प्रान्तदेवता द्वारा छला जाना तथा प्रत्यनीक मनुष्य द्वारा मारे अनुसार सारी आरोपणा ज्ञातव्य है। जो परिगृहीत अचित्त का जाने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। ग्रहण करता है, कोई भद्रक इसे अनुग्रह मानता है। ८८५. एवं ता असहाए, सहायसहिए इमे भवे भेदा। ८९२. तिविह परिग्गह दिव्वे, चउलहु चउगुरुग छल्लहुक्कोसे। जय अजय इत्थि पंडे, अस्संजइ संजईहिं च॥ अहवा छल्लहुग च्चिय, अंत गुरू तिविह दिव्वम्मि। इस प्रकार असहाय अकेले जाने पर उपरोक्त दोषे होते सपरिग्रह तीन प्रकार का होता है--देवपरिगृहीत, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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