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________________ पहला उद्देशक ८६९. निवेसण वाडग साही, गाममज्झे अ गामदारे । आठ में लघुक तथा आगे के आठ में गुरुक। द्वितीय पंक्ति वाले उज्जाणे सीमाए, अन्नग्गामे य खेत्तम्मि॥ सोलह भंगों में पहले चार लघुक, फिर चार गुरुक, फिर चार प्रकारान्तर से क्षेत्र विषयक प्रायश्चित्त लघुक और शेष चार गुरुक। तीसरी पंक्ति वाले सोलह भंगों निवेशन में चतुर्लघु, पाटक में चतुर्गुरु, गली में षड्लघु, में दो लघुक और दो गुरुक के क्रम से निक्षेपतव्य हैं। चौथी ग्राममध्य में षड्गुरु, ग्रामद्वार में छेद, उद्यान में मूल, सीमा पंक्ति वाले सोलह भंगों में एक लघुक और एक गुरुक के क्रम में अनवस्थाप्य और अन्यग्राम में पारांचिक। से एकांतरित लघु-गुरु रूप में होते हैं। ८७०. भावऽट्ठवार सपदं, लहुगाई मीस दसहिं चरिमं तु। चारों अष्टक भंगों में प्रथम भंग रहित शेष तीन भंग एमेव य बहिया वी, सत्थे जत्ताइठाणेसु॥ एकांतरित शुद्ध हैं। भावतः प्रायश्चित्त-भावतः आठ बार सचित्त प्रलंब लेने ८७५. पढमो एत्थ उ सुद्धो, चरिमो पुण सव्वहा असुद्धो उ। पर 'स्वपद' अर्थात् पारांचिक। मिश्र प्रलंब लेने पर लघुमास अवसेसा वि य चउदस, भंगा भइयव्वगा होति। आदि से प्रारंभ कर दशवें स्थान में पारांचिक प्रायश्चित्त है। सोलह भंगों में प्रथम सर्वथा शुद्ध है और चरमभंग सर्वथा इसी प्रकार ग्राम के बाहर भी जानना चाहिए। बहिर्ग्रहण में अशुद्ध है। शेष चौदह भंगों में शुद्ध-अशुद्ध की भजना है। सार्थवाह के साथ जाते हुए अथवा यात्रास्थानों में यह गृहीत है। ८७६. आगाढम्मि उ कज्जे, सेस असुद्धो वि सुज्झए भंगो। ८७१. अंतो आवणमाईगहणे जा वण्णिया सवित्थारा। न विसुज्झे अणागाढे, सेसपदेहिं जइ वि सुद्धो। बहिया उ अन्नगहणे, पडियम्मि उ होइ स च्चेव॥ आगाढ़ कार्य अर्थात् पुष्ट आलंबन में अशुद्धभंग भी शुद्ध ग्राम आदि के अन्तर-मध्य में, आपण तथा आपणवर्ज में हो जाता है। शेष पदों में शुद्ध होने पर भी अनागाढ़ अर्थात् जुगुप्सित अथवा अजुगुप्सित ग्रहण विषयक भावना जो निरालंब में वह विशुद्ध नहीं होता। विस्तार से (गा. ८६६) में बताई गई है, वही ग्राम आदि के ८७७. लहुगा य निरालंबे, दिवसतो रत्तिं हवंति चउगुरुगा। बाहर पड़े हुए प्रलंब के विषय में तथा अन्यत्रग्रहण में जाननी लहुगो य उप्पहेणं, रीयादी चेवऽणुवउत्ते॥ चाहिए। जहां जहां निरालंब है और दिवस में जा रहा है तो चार ८७२. कोट्टगमाई रन्ने, एमेव, जणो उ जत्थ पुंजेइ।। लघुक तथा रात्री में जाने पर चार गुरुक का प्रायश्चित्त है। तहियं पुण वच्चंते, चउपयभयणा उ छद्दसिया॥ दिन में उत्पथ से जाने पर मासलघु और ईर्या आदि समितियों अरण्य में 'कोट्टक' आदि प्रदेशों में लोग फलों को एकत्रित में अनुपयुक्त होकर जाने में मासलघु। रात्री में उत्पथगमन कर सुखाते हैं, वहां यदि मुनि प्रलंब ग्रहण करता है तो गाथा और अनुपयुक्तगमन में मासगुरु। ८६६ की भांति प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कोट्टकादि में जाते हुए ८७८. दिय-राओ लहु-गुरुगा, आणा चउ गुरुग लहुग लहुगा य। चार पदों के सोलह भंग प्रमाण वाली भंग रचना करे। संजम-आयविराहण, संजमे आरोवणा इणमो॥ ८७३. वच्चंतस्स य दोसा, दिया य रातो य पंथ उप्पथे। सभी अशुद्ध भंगों में दिन में जाने पर चतुर्लघुक और उवउत्त अणुवउत्ते, सालंब तहा निरालंबे॥ रात्री में जाने पर चतुर्गुरुक। आज्ञाभंग में चतुर्गुरुक, वहां जाने पर अनेक दोष होते हैं (वे आगे बताए जायेंगे।) अनवस्था और मिथ्यात्व में चतुर्लघुक। दो प्रकार की सोलह भंगों का प्रमाण इस प्रकार है विराधना होती है-संयमविराधना और आत्मविराधना। (१) दिन में, पथ से, उपयुक्त, सालंब। संयमविराधना होने पर यह प्रायश्चित्त है(२) दिन में, पथ से, उपयुक्त, निरालंब । ८७९. छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। (३) दिन में, पथ से, अनुपयुक्त, सालंब। संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽतिवायणे मूलं॥ (४) दिन में, पथ से, अनुपयुक्त, निरालंब। षड्जीवनिकाय में चार अर्थात् पृथ्वी, अप, तेजो, वायुइसी प्रकार 'उत्पथ' से भी चार विकल्प होते हैं। ये आठ का संघट्टन होने पर लघुक प्रायश्चित्त, परीत्त का लघुक, विकल्प हुए। रात्री संबंधी भी ये ही आठ विकल्प होते हैं। अनन्त वनस्पति का गुरुक। द्वीन्द्रिय आदि जीवों के संघट्टन सर्व विकल्प सोलह हुए। इनकी रचना इस प्रकार है- में लघुक और परितापन में गुरुक, उनका अतिपात होने ८७४. अट्ठग चउक्क दुग एक्कगं च लहुगा य होति गुरुगा य। पर मूल। सुद्धा एगंतरिया, पढमरहिय सेसगा तिण्णि॥ ८८०. जहिं लगा तहिं गुरुगा, जहिं गुरुगा कालगुरुग तहिं ठाणे। प्रथम पंक्ति में इन सोलह भंगों को स्थापित करने पर प्रथम छेदो य लहुय गुरुओ, काएसाऽऽरोवणा रतिं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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