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________________ ९४ ८५९. भावेण य दव्वेण य, भिन्नाऽभिन्ने चउक्कभयणा उ । पढमं दोहि अभिन्नं, बिइयं पुण दव्वतो भिन्नं ॥ ८६० तहयं भावतो भिन्नं, दोहि वि मित्रं चउत्थगं होइ। एएसिं पच्छित्तं, वोच्छामि अहावी ॥ भाव और द्रव्य के भिन्न- अभिन्न के आधार पर चतुर्भंगी होती है- (१) प्रलंब भाव से तथा द्रव्य-दोनों से अभिन्न (२) प्रलंब द्रव्य से भिन्न भाव से अभिन्न । (३) प्रलंब द्रव्य से अभिन्न भाव से भिन्न । (४) प्रलंब द्रव्य से तथा भाव से भिन्न । इन चारों से संबंधित प्रायश्चित्त यथानुपूर्वी यथोक्तपरिपाटी के अनुसार कहूंगा। ८६१. लहुगा व दो दोसु य, लहुओ पढमम्मि दोहि वी गुरुगा। तवगुरुअ कालगुरुओ, दोहि वि लहुओ चउत्थो उ ॥ प्रथम दो भंगों का प्रायश्चित्त है- चतुर्लघुक और शेष दो भंगों का प्रायश्चित है मासलघु पहले भंग का प्रायश्चित्त तप और काल से लघु, दूसरे भंग में तप से गुरु और काल से लघु, तीसरे भंग में काल से गुरु और तप से लघु और चौथे भंग में तप और काल से लघु । प्रायश्चित्त के संबंध में यहां लघु का अर्थ है मासलघु । ८६२. उग्घाइया परिते होंति अणुग्धाइया अणतम्मि । आणाऽणवत्थ मिच्छा, विराहणा कस्सऽगीयत्थे ॥ ये उद्घातिक लघु प्रायश्चित्त परीत प्रलंब संबंधी हैं। अनन्तकायिक में ये ही अनुद्घातिक गुरु हो जाएंगे। इनके साथ-साथ आज्ञाभंग, अनवस्था दोष, मिथ्यात्व, आत्मविराधना तथा संयमविराधना आदि दोष होते हैं। शिष्य ने कहा- ये किसके लिए हैं ? आचार्य ने कहा- अगीतार्थ के लिए। ८६३. अन्नत्थ तत्थगहणे, पडिते अच्चित्तमेव सच्चिते। छुमणाऽऽरुहणा पडणे, उबही तत्तो य उहाहो ॥ प्रलंबग्रहण दो प्रकार का होता है- अन्यत्रग्रहण अर्थात् वृक्षप्रदेश से अन्यप्रदेश में ग्रहण, तत्रग्रहण अर्थात् वृक्षप्रदेश में ग्रहण। पतित अर्थात् नीचे गिरे हुए प्रलंब का ग्रहण | वह दो प्रकार का होता है- सचित्त का ग्रहण, अचित्त का ग्रहण | प्रलंब पाने के लिए वृक्ष पर काष्ट आदि फेंकना । वृक्ष पर चढ़ कर प्रलंब प्राप्त करने का प्रयत्न करना, वृक्ष पर आरूढ़ नीचे गिर सकता है, उसकी उपधि का हरण हो सकता है। उसका उड्डाह हो सकता है। ८६४. अण्णगहणं तु दुविहं, वसमाणेऽडवि वसंति अंतों बहिं । अंताऽऽवण तव्वज्जे, रच्छा गिह अंतो पासे वा ॥ बृहत्कल्पभाष्यम् अन्यत्रग्रहण दो प्रकार का होता है- वसति में अथवा अटवी में वसति प्रवेश दो प्रकार से होता है-अन्तर या अहिर । अन्तर भी दो प्रकार का होता है-आपण में अथवा तद्वर्ण्य में। तद्वर्ण्य विषय अर्थात् गली में अथवा गृह में अथवा गली के पास में या गृह के पास में। ८६५. कब्बदि लहुओ, अनुष्पत्तीय लघुग ते चेव । परिवड्डमाणदोसे, दिट्ठाई अन्नगहणम्मि | यदि बालक मुनि को सचित्त प्रलंब लेते देख ले तो मासलघु, बालक के मन में भी अर्थोत्पत्ति- मैं भी ग्रहण करूं, इस प्रकार की प्रवृत्ति होती है। इसमें चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। यदि बड़े मनुष्य ने उस मुनि को प्रलंब लेते देखा है तो वही प्रायश्चित है जो परिवर्धमान आज्ञाभंग आदि दोष हैं अन्यत्रग्रहण में होते हैं। Jain Education International ८६६. दिट्ठे संका भोइय- घाडि - निआ - SSरक्खि सेट्ठि - राईणं । चत्तारि छच्च लहु गुरू, छेदो मूलं तह दुगं च ॥ यदि मुनि को सचित्त प्रलंब लेते युवा पुरुष देख ले तो चतुर्लघु, उसको शंका हो तो भी चतुर्लघु, यदि किसी की भार्या देख ले और पति से कहे तो षडलघु, यदि घाटीसौहृद् को कहे तो षड्गुरु, माता-पिता से कहे तो छेद, आरक्षिक को कहे तो मूल, श्रेष्ठी और राजा को कहे तो अनवस्थाप्य तथा पारांचिक दोनों। ८६७. एवं ता अदुगुछिए, दुर्गाछिए लसुणमाइ एमेव । नवरिं पुण चउलहुगा, परिग्नहे गिण्हणादीया ॥ यह प्रायश्चित्त अजुगुप्सित आम्र आदि के प्रलंब राहण विषयक जानना चाहिए। जुगुप्सित लशुन आदि के विषय में भी पूर्वोक्त प्रायश्चित्त ही है। केवल बालक जुगुप्सित को लेते हुए देखे तो चतुर्लघु यदि प्रलंब आदि किसी के अधीन हो, जुगुप्सित अथवा अजुगुप्सित, प्रायश्चित्त वही है। यदि वे श्रेष्ठी या राजा के अधीन हो तो ग्रहण आकर्षण व्यवहार आदि दोष आते हैं। ८६८. खेत्ते निवेसणाई, जा सीमा लहुगमाइ जा चरिमं । केसिंची विवरीयं काले दिन अट्टमे सपदं ॥ क्षेत्र संबंधी निवेशन से प्रारंभ कर गांव की सीमा के भीतर जो ग्रहण करता है उसके लघुक आदि प्रायश्चित्त से प्रारंभ होकर चारित्र पारांचिक तक आता है। कुछेक आचार्यों का इससे विपरीत मत है। वे मानते हैं कि कालविषयक प्रायश्चित्त आठवें दिन 'स्वपदं ' अर्थात् पारांचिक हो जाता है। १. इसकी भावना यह है - प्रलंब लेते हुए प्रथम दिन चार लघु, दूसरे दिन चार गुरु, तीसरे दिन छह लघु, चौथे दिन छह गुरु, पांचवें दिन छेद, छठे दिन मूल, सातवें दिन अनवस्थाप्य और आठवें दिन पारांचिक । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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