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पहला उद्देशक = दूसरा आदेश-मत यह है-जो ताल का विज्ञायक पुरुष है, वह भी भावताल है। यह आगमतः भावताल है। ८४९. नाम ठवण पलंब, दव्वे भावे अ होइ बोधव्वं। ___ अट्ठविह कम्मगंठी, जीवो उ पलंबए जेणं॥
प्रलंब के चार निक्षेप जानने चाहिए-नामप्रलंब, स्थापनाप्रलंब, द्रव्यप्रलंब और भावप्रलंब। द्रव्यप्रलंब है-द्रव्यताल की भांति और भावप्रलंब है-भावताल की भांति। अथवा आठ प्रकार की कर्मग्रंथि, जिसके आधार पर जीव नरक आदि गतियों में लंबित होता है, वह है भावप्रलंब। ८५०. तालं तलो पलंब, तालं तु फलं तलो हवइ रुक्खो ।
पलंबं च होइ मूलं, झिज्झिरिमाई मुणेयव्वं ।। शिष्य ने पूछा-ताल क्या है? तल क्या है और प्रलंब क्या है? आचार्य ने कहा-ताल है तलवृक्ष का फल, (अग्रप्रलंब) तल है वृक्ष। प्रलंब है-मूल। प्रलंब शब्द से यहां मूलप्रलंब गृहीत है। वह झिज्झिरी आदि (वृक्ष संबंधी) जानना चाहिए। ८५१. झिन्झिरि-सुरभिपलंबे, तालपलंबे अ सल्लइपलंबे।
एतं मूलपलंब, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ झिज्झिरी-वल्लीपलाशक, सुरभि-सिग्गुक-इनका प्रलंब अर्थात् मूल। इसी प्रकार तालप्रलंब, सल्लकीप्रलंब-ये सारे आनुपूर्वी से मूलप्रलंब जानने चाहिए। (दूसरे भी मूल जो लोगों के उपभोग में आते हैं वे सारे मूलप्रलंब हैं।) ८५२. तल नालिएर लउए, कविट्ट अंबाड अंबए 'चेव।
एअं अग्गपलंब, नेयव्वं आणुपुव्वीए॥ तल का फल (तालफल), नालिकेर का फल, लकुच का फल, कपित्थ का फल, आम्रातक का फल, आम्र का फल, (कदलीफल, बीजपूरक फल)-ये सारे आनुपूर्वी से अग्रप्रलंब ज्ञातव्य हैं। ८५३. जइ मूल-ऽग्गपलंबा, पडिसिद्धा न हु इयाणि कंदाई।
कप्पंति न वा जीवा, को व विसेसो तदग्गहणे॥ शिष्य ने पूछा-सूत्र में यदि मूलप्रलंब तथा अग्रप्रलंब प्रतिषिद्ध हैं, उसमें कंद आदि (स्कंध, त्वक्, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, बीज) का प्रतिषेध नहीं है। इनको लेना कल्पता है। अथवा ये जीव नहीं हैं। कंद आदि के अग्रहण में कौनसा विशेष हेतु है? ८५४. चोयग! कन्नसुहेहि, सद्देहिं अमुच्छितो विसह फासे। __ मज्झम्मि अट्ठ विसया, गहिया एवऽट्ठ कंदाई॥
आचार्य ने कहा-वत्स! 'कानों के लिए सुखदायी शब्दों १. कण्णसोक्खेहिं सद्देहिं, पेम नाभिनिवेसए। दारुणं कक्कसं फासं, काएण अहियासए।। (दशवै.८/२६)
में अमूर्छित हो'-इस प्रकार के कथन से शब्दविषयक राग का प्रतिषेध किया गया है। 'स्पर्श को सहन करे'-इस कथन के द्वारा स्पर्श का निषेध है। शेष मध्यवर्ती रूप-रस और गंध का उल्लेख नहीं है। परंतु आद्यन्त के ग्रहण से मध्यवर्ती का ग्रहण हो जाता है, इस न्याय से उनका प्रतिषेध ज्ञातव्य है। इसी प्रकार प्रस्तुत गाथा में आद्यन्तवाले अग्र और मूलप्रलंब का ग्रहण करने पर मध्यवर्ती कन्द आदि आठों प्रकारों का ग्रहण स्वतः हो जाता है। ८५५. अहवा एगग्गहणे, गहणं तज्जातियाण सव्वेसिं।
तेणऽग्गपलंबेणं, तु सूइया सेसगपलंबा। अथवा एक के ग्रहण से उस जाती वाले सभी का ग्रहण हो जाता है। इसलिए अग्रपलंब अथवा मूलप्रलंब के ग्रहण से शेष कंद आदि का ग्रहण सूचित किया गया है। ८५६. तलगहणाउ तलस्सा, न कप्पे सेसाण कप्पई नाम।
एगग्गहणा गहणं, दिट्ठतो होइ सालीणं॥ शिष्य ने कहा-तल के ग्रहण से ताल से संबंधित मूल, कंद आदि प्रलंब नहीं कल्पता, शेष आम्र आदि के प्रलंब तो कल्पते हैं, यह इससे ध्वनित होता है। आचार्य ने कहा-एक के ग्रहण से तज्जातीय सभी का ग्रहण हो जाता है। इसमें शालि संबंधी दृष्टांत है। 'चावल पक गए' यह कहने से केवल एक चावल पका है ऐसा नहीं। सारे चावल पक गए हैं, यह भावार्थ है। इसी प्रकार तालप्रलंब कहने से समस्त वृक्षजाति वाले प्रलंब गृहीत हो जाते हैं। ८५७. को नियमो उ तलेणं, गहणं अन्नेसि जेण न कयं तु।
उभयमवि एइ भोगं, परित्त साउं च तो गहणं॥ शिष्य ने पूछा-कौन सा नियम है कि तल के ग्रहण से उसी का ग्रहण होता है, अन्य वृक्षों का ग्रहण नहीं होता? आचार्य ने कहा-ताल तथा ताल से संबंधित मूलअग्रप्रलंब-दोनों उपयोग में आते हैं अतः इन सबका ग्रहण हो जाता है। परीत्त वनस्पति स्वादु होता है। उसके ग्रहण का प्रतिषेध किया जाता है तो अनन्तकायिक वनस्पति का प्रतिषेध स्वतः प्राप्त हो जाता है। ८५८. नामं ठवणा भिन्नं, दव्वे भावे अ होइ नायव्वं ।
दव्वम्मि घड-पडाई, जीवजढं भावतो भिन्नं ।। भिन्नपद के चार निक्षेप हैं-नामभिन्न, स्थापनाभिन्न, द्रव्यभिन्न और भावभिन्न। द्रव्यभिन्न-घट का फूट जाना, पट आदि का भेद हो जाना। भावभिन्न-जीव का च्युत हो जाना। वह चतुर्भंगी इस प्रकार है२. मूले कंदे खंधे, तया य साले पवाले पत्ते य। पुप्फे फलं य बीए, पलंबसुत्तम्मि दस भेया।। (वृ. प. २७४)
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