________________
९२
जो सरागसंयमी होते हैं वे सभी ग्रंथों से निर्गत नहीं होते फिर भी वे क्षय करने में उद्यत होते हैं तथा निग्रहप्रधान होने के कारण वे निर्ग्रथ कहलाते हैं।
८३७. कलुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जं विगयरागो ।
संते वि जो कसाए, निगिण्हई सो वि तत्तुल्लो ॥ विगतराम अर्थात् क्षीणमोह वाला व्यक्ति यदि कलुषित कषायों के फल से संयुक्त नहीं होता तो इसमें आश्चर्य क्या है ? जो विद्यमान कषायों का निग्रह करता है वह भी वीतरागतुल्य निष्कषाय होता है। ८३८. जह अब्मिंतरमुक्का, बाहिरगंथेण मुक्कया किह णु । गिण्हंता उवगरणं, जम्हा अममत्तया तेसु ॥ जो मुनि आभ्यन्तर ग्रंथ से मुक्त हैं, वे यदि उपकरण आदि ग्रहण करते हैं तो भी वे बाह्य ग्रंथ से मुक्त क्यों कहे जाते हैं? आचार्य कहते हैं क्योंकि उन मुनियों का बाह्य ग्रंथ के प्रति अममत्वभाव है। ८३९. नामं ठवणा आमं,
दव्यामं चैव होह भावामं । उस्सेहम संसेइम उवक्खडं चेव पलियामं ॥ 'आम' शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम आम, स्थापना आम, द्रव्य आम और भाव आम । द्रव्य आम चार प्रकार का हैउत्स्वेदिम आम, संस्वेदिम आम, उपस्कृत आम, पर्याय आम । ८४०. उस्सेहम पिट्ठाई, तिलाह संसेइमं तु णेगविहं ।
कंकडुयाह उवक्खड, अविपक्करसं तु पलियामं ॥ उत्स्वेदिम आम-सूक्ष्मतंदुलादि चूर्ण से निष्पन्न पिष्ट । जब वह वाष्प से उत्स्विद्यमान होकर पकाया जाता है। उसकी अपक्वावस्था उत्स्वेदिम आम है। संस्वेदिम आम तिल आदि का अनेकविध होता है। चने, मूंग आदि को उबालने पर भी जो कंकटुक (कोरडू) रह जाते हैं, वे उपस्कृत आम कहलाते हैं। अविपक्चरस वाला फल आदि पर्याय आम है।
८४१. इंघण धूमे गंधे, वच्छप्पलियामए अ आमविही
एसो खलु आमविही, नेयब्बो आणुपुवीय ॥ पर्याय आम के चार प्रकार हैं-इंधनपर्याय आम, धूमपर्याय आम गंधपर्याय आम तथा वृक्षपर्याय आम इस प्रकार पर्याय आम में आम विधि चार प्रकार की है। यह आम विधि आनुपूर्वी से ज्ञातव्य है।
८४२. कोद्दवपलालमाई, धूमेणं मज्झऽगडाऽगणि पेरंत
तंदुगाइ पच्चते । तिंदुया छिद्दधूमेणं ॥ कोद्रव, पलाल आदि इंधन कहलाते हैं। इनमें आम्रफल आदि वेष्टित कर पकाए जाते हैं। धुएं से तिन्दुक आदि फल पकाए जाते हैं। इसकी विधि यह है-पहले गढ़ा खोदकर उसमें
Jain Education International
बृहत्कल्पभाष्यम्
करीष प्रक्षिप्त करते हैं उस गढ़ के पास दूसरे गड्ढ़े खोदे जाते हैं। उन गढ़ों में तिन्दुक आदि फल रखकर मध्यमगर्ता और करीषगर्ता में अग्नि जलाई जाती है। पर्यन्तवर्तीगर्त्ता के खोत मध्यमगर्त्ता के साथ मिलाए जाते हैं। तब करीषगर्ता से धूम उन स्रोतों से पर्यन्तवर्तीगर्ता में प्रविष्ट होता है। वह धूम पूरे गर्त्ता में प्रसृत होकर फलों को पकाता है। जो फल अपक्व रह जाता है, वह धूमपर्याय आम कहलाता है ।
८४३. अंबग - चिब्भिडमाई, गंधेणं जं च उवरि रुक्खस्स । कालप्पत्त न पच्चइ, वत्थप्पलियामगं तं तु ॥ आम्रक, चिरभटी, बीजपुर आदि अपक्व फल पके फलों के बीच उनके गंध से पक जाते हैं। जो नहीं पकते वे गंधपर्याय आम कहलाते हैं। वृक्ष की शाखाओं पर पकने वाले फल यदि कालप्राप्त करके भी नहीं पकते, वे वृक्षपर्याय आम कहलाते हैं। यह सारा द्रव्य आम का वर्णन है ।
८४४. भावामं पिय दुविहं वयणामं चेव नो य वयणामं ।
॥
वयणाम अणुमयत्थे, आमं ति हि जो वदे चक्कं ॥ ८४५. नोवयणामं दुविहं, आगमतो चेव नो अ आगमतो। आगमे नाणुवउत्तो, नोआगमओ इमं होइ ॥ भाव आम भी दो प्रकार का है-वचन आम और नोवचन आम। अनुमतार्थ में 'आमं' यह वचन बोलता है, वह वचन आम है। नो वचन आम दो प्रकार का है-आगमतः और नोआगमतः । आगमतः नो वचन आम है-आम पदार्थ के ज्ञान में उपयुक्त। नोआगमतः नोवचन आम यह है८४६. उम्गमदोसाईंया, भावतो अस्संजमो अ आमविही
अन्नो वि य आएसो, जो वरिससयं न पूरेइ ॥ भाव आम है-उदगम आदि दोष और असंयम है भावतः आमविधि क्योंकि ये सब चारित्र को अपक्व करते हैं। इस विषयक अन्य आदेश मत भी है किसी व्यक्ति का आयुष्य सौ वर्ष का है। वह उसको पूरा किए बिना मर जाता है - यह भावतः आम है। ८४७. नाम ठवणा दविए, तालो भावे य होइ नायव्वो ।
जो भविओ सो तालो, दव्वे मूलुत्तरगुणेसु ॥ ताल शब्द के चार निक्षेप हैं-नामताल, स्थापनाताल, द्रव्यताल और भावताल द्रव्य ताल है भावितालपर्याय। अथवा द्रव्यताल दो प्रकार का है- मूलगुणनिवर्तित और उत्तरगुणनिवर्तित। ८४८. भावम्मि होंति जीवा, जे तस्स परिग्गहे समक्खाया ।
बिइओ वि य आदेसो, जो तस्स विजाणओ पुरिसो ॥ जो जीव तालवृक्ष के परिग्रह मूल कंद आदि रूप हैं वे सभी समुचित रूप में भावताल कहे जाते हैं। इस विषयक
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org