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पहला उद्देशक
८२६. खेत्तं सेउं केलं, सेयऽरहट्टाइ केउ वरिसेणं। ६. द्वेष, ७. मिथ्यात्व, ८. वेद, ९. अरति, १०. रति,
भूमिघर वत्थु सेउं, केउं पासाय-गिहमाई॥ ११. हास्य, १२. शोक, १३. भय, १४. दुगुंछा। ८२७. तिविहं च भवे वत्थु, खायं तह ऊसियं च उभयं च। ८३२. सावज्जेण विमुक्का, सभिंतर-बाहिरेण गंथेण।
भूमिघरं पासाओ, संबद्धघरं भवे उभयं॥ निग्गहपरमा य विदू, तेणेव य होति निग्गंथा॥ क्षेत्र के दो प्रकार हैं-सेतु और केतु। जो खेत अरहट्ट जो सावध ग्रंथ तथा आभ्यन्तर और बाह्य ग्रंथों से आदि के पानी से सींचा जाता है वह है सेतु और जो वर्षा से विप्रमुक्त हैं, जो क्रोध आदि दोषों के विज्ञाता है, तथा जो इनका निष्पन्न होता है वह है केतु। वास्तु के भी ये ही दो भेद हैं। निग्रह करने में प्रमुख हैं इन कारणों से वे निग्रंथ कहलाते हैं। भूमिगृह है सेतु और प्रासाद, गृह आदि हैं केतु। अथवा वास्तु ८३३. केई सव्वविमुक्का, कोहाईएहिं केइ भइयव्वा। के तीन भेद हैं-खात, उच्छ्रित और खातोच्छ्रित। भूमिगृह है सेढिदुगं विरएत्ता, जाणसु जो निग्गओ जत्तो। खात, प्रासाद है उच्छ्रित और भूमिगृह से संबद्ध गृह है कुछेक मुनि क्रोध आदि दोषों से सर्वथा विमुक्त होते हैं खातोच्छ्रित।
और कुछेक विकल्पनीय होते हैं अर्थात् कुछ मुक्त हैं और ८२८. घडिएयरं खलु धणं, सणसत्तरसा बिया भवे धन्न।। कुछ मुक्त नहीं हैं। (शिष्य ने पूछा-यह कैसे जाना जाता है
तण-कट्ठ-तेल्ल-घय-मधु-वत्थाई संचओ बहुहा॥ कि ये सर्वथा मुक्त हैं और ये नहीं?) आचार्य कहते घटित अथवा अघटित सुवर्ण आदि को धन कहा जाता है। हैं-श्रेणीद्विक-उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी की स्थापना कर शण आदि सतरह प्रकार के बीज धान्य कहलाते हैं। (वे ये जो साधक जिस श्रेणी से गमन करता है उससे जान लिया हैं-चावल, यव, मसूर, गेहूं, मूंग, माष, तिल, चना, जाता है कि वह क्रोध आदि से मुक्त है या नहीं। कंगु, प्रियंगु, कोद्रव, मोठ, शालि, अरहर, मटर, कुलत्थ तथा ८३४. अण दंस नपुंसि-त्थीवेय च्छक्कं च पुरिसवेयं च। शण।)
दो दो एगंतरिए, सरिसे सरिसं उवसमेइ॥ तृण, काष्ठ, तैल, घृत, मधु, वस्त्र आदि संचय अनेक उपशमश्रेणी ग्रहण करने वाला सबसे पहले 'अण' अर्थात् प्रकार का है।
अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन ८२९. सहजायगाइ मित्ता, नाई माया-पिईहिं संबद्धा। करता है। फिर दर्शनत्रिक का उपशमन करता है। यदि पुरुष
ससुरकुलं संजोगो, तिण्णि वि मित्तादयो छट्ठो॥ प्रतिपत्ता हो तो पहले नपुंसकवेद को, फिर स्त्रीवेद को, फिर मित्र सहजातक आदि होते हैं। मातृकुलंसबद्ध और पितृ- हास्य आदि षट्क का और फिर पुरुषवेद का उपशमन करता कुलसंबद्ध ज्ञाती कहलाते हैं। श्वसुरकुल संयोग कहलाता है। है। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान क्रोध क्रोधरूप में अर्थात् श्वसुर, श्वश्रू और शाले–इन तीनों का संबंध संयोग सदृश होने के कारण एक साथ इनका उपशमन कर, फिर कहलाता है। मित्र आदि के ये तीनों पक्ष छठा ग्रंथ है। अकेले संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है। इसी प्रकार ८३०. जाणं तु आसमाई, पल्लंकग-पीढिगाइ अट्ठमओ। अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान मान, माया और लोभ का
दासाइ नवम दसमो, लोहाइउवक्खरो कुप्पं॥ उपशमन कर फिर एक-एक से अंतरित संज्वलन मान, माया यान का अर्थ है-अश्व आदि। आदि शब्द से गज, वृषभ, और लोभ का उपशमन करता है। रथ, शिविका आदि। पल्यंक शयन कहलाते हैं और पीठिका ८३५. अण मिच्छ मीस सम्म, अट्ठ नपुंसि त्थिवेय छक्कं च। आदि आसन हैं। यह आठवां ग्रंथ है। दास आदि नौवां ग्रंथ पुमवयं च खवेई, कोहाईए अ संजलणे॥ और लोहादिक उपस्कर कुप्य दसवां ग्रंथ है। यह सारा दस अण-अनंतानुबंधी चतुष्क, मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्प्रकार का बाह्य ग्रंथ है।
मिथ्यात्व, आठ कषाय, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य आदि ८३१. कोहो माणो माया, लोभो पेज्जं तहेव दोसो अ। षट्क, पुंवेद-इनको क्षीण करता है। फिर संज्वलन क्रोध
मिच्छत्त वेद अरइ, रइ हास सोगो भय दुगुंछा॥ आदि। यह क्षपकश्रेणी का कथन है। चौदह प्रकार का आभ्यन्तर ग्रंथ
८३६. जे वि अ न सव्वगंथेहिं निग्गया होति केइ निग्गंथा। १. क्रोध, २. मान, ३. माया, ४. लोभ, ५. राग, . . ते वि य निग्गहपरमा, हवंति तेसिं खउज्जुत्ता। १. ब्रीहिर्यवो मसूरो, गोधूमो मुद्ग-माष-तिल-चणकाः।
अणवः प्रियंगु-कोद्रवमकुष्ठकाः शालिराढक्यः॥ किञ्च कलाप-कुलत्थी, शरणसप्तदशानि बीजानि॥ (वृ. पृ. २६४)
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