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________________ ९० ८१३. जइ वा सव्वनिसेहो, हवेज्ज तो कप्पणा भवे एसा । नंदी य भावमंगल, वुत्तं तत्तो अणन्नमिदं ॥ यदि सूत्र में सर्वनिषेध होता तो आपकी कल्पना ( प्रतिषेध वचन अमंगल होता है) सही होती। पहले यह कहा गया है कि 'नंदीभावमंगल है'। उससे यह सूत्र अनन्य है-अपृथग्भूत है। ८१४. पडिसेहम्मि उ छक्कं, अमंगलं सो त्ति ते भवे बुद्धी । पावाणं जदकरणं, तदेव, खलु मंगलं परमं ॥ प्रतिषेध के विषय में छह निक्षेप हैं- नामप्रतिषेध, स्थापनाप्रतिषेध, द्रव्यप्रतिषेध क्षेत्रप्रतिषेध, कालप्रतिषेध और भावप्रतिषेध। यहां सूत्र में द्रव्यप्रतिषेध का प्रसंग है। इसमें प्रतिषेध अमंगल है, ऐसी तुम्हारी बुद्धि हो सकती है। पापों का अकरण ही सबसे परम मंगल है। ८१५. आइनकारे गंये, आमे ताले तहा पलंबे थ भिन्नस्स वि निक्खेवो, चक्कओ होइ एक्केक्वे ॥ 'आदिनकार' विचारणीय है। ग्रंथ, आम, ताल और प्रलंब तथा भिन्न- इन शब्दों के प्रत्येक के चार-चार निक्षेप होते हैं। (शिष्य ने कहा- आदि में नकार से प्रतिषेध होना चाहिए। ऐसा करने पर सूत्र लघु होता है और सूत्र का लघु होना महान् उत्सव का कारण होता है- 'मात्रयाऽपि च सूत्रस्य लाघवं महानुत्सवः ' । नो शब्द से प्रतिषेध करने पर सूत्रगौरव होता है। आचार्य कहते हैं-'नोकार' से प्रतिषेध करने का भी कारण है। सुनो) ८१६. पडिसेहो उ अकारो, माकारो नो अ तह नकारो अ तब्भाव दुविहकाले, ऐसे संजोगमाईसु ॥ प्रतिषेधक में चार वर्ण है-अकार, मकार, नोकार तथा नकार । अकार भाव प्रतिषेधक है। माकार द्विविध कालवर्तमान काल तथा अनागत काल का प्रतिषेधक है। नोकार देशप्रतिषेधक है। नकार संयोग आदि का प्रतिषेधक है। ८१७ निदरिसणं अघडोऽयं मा व घडं भिंद मा य भिंविहिसि । नो उ पडो पडदेसो, तव्विवरीयं च जं दव्वं ॥ इन प्रतिषेधक वर्णों का निदर्शन-अकार का तद्भावप्रतिषेध, जैसे अघटोऽयम् 'मा' प्रतिषेध मा घटं मिद्धि-घड़े को मत फोड़ो, मा घटं भेत्स्यसि-घट को भविष्य में मत फोडना 'नो' नो घटः अर्थात् घट का एक देश-कपाल आदि है । घट के विपरीत जो अन्य द्रव्य है वह । ८१८. संजोगे समवाए, सामने खलु तहा विसेसे अ कालतिए पडिसेहो, जत्बुवओगो नकारस्स ॥ नकार संयोग, समवाय, सामान्य और विशेष - इन चार प्रकारों से तीनों काल विषयक प्रतिषेधक वचन है। इस प्रकार यह ४४३ = १२ प्रकार का हो जाता है। जहां कहीं भी Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम् नकार का उपयोग होता है, वहां इन बारह भेदों में से किसी एक का प्रतिषेध जानना चाहिए। ८१९. नत्थि घरे जिणदत्तो, पुव्यपसिद्धाण तेसि दोण्डं पि संजोगो पडिसिन्झह, न सब्बसो तेसि अत्थित्तं ॥ ८२०. समवाए खरसिंगं, सामन्ने नत्थि चंदिमा अन्नो । नत्थि य घटुप्पमाणा, विसेसओ होंति मुत्ताओ ॥ 'कहा जाए कि जिनदत्त घर में नहीं है इस वाक्य में पूर्व प्रसिद्ध जिनदत्त और घर दोनों के संयोग का प्रतिषेध है। उन दोनों के सर्वथा अस्तित्व का प्रतिषेध नहीं है। समवाय विषयक प्रतिषेध में 'खरशृंग' - गधे के सींग - यह निदर्शन है। सामान्य प्रतिषेध का निदर्शन है इस स्थान में ऐसा अन्य चन्द्रमा नहीं है । विशेष प्रतिषेध का निदर्शन है-घटप्रमाण (इतने बड़े) मुक्ता नहीं हैं अर्थात् मुक्ता-मोती हैं, परंतु घटप्रमाण नहीं हैं। ८२१. नेवाऽऽसी न भविस्सइ, नेव घडो अत्थि इति तिहा काले । पडिसेहेइ नकारो, सज्जं तु अकार नोकारा॥ नकार त्रिकालविषय वस्तु का निषेध करता है, जैसे- 'घट नहीं था, घट नहीं है और घट नहीं होगा। अकार और नोकार प्रायः वर्तमान काल का ही प्रतिषेध करते हैं। - ८२२. जम्हा खलु पडिसेहं, नोकारेणं करेंति णऽण्णेणं । तम्हा उ होज्ज गहणं, कयाइ अववायमासज्ज ॥ सूत्रकार जिस कारण से नोकार शब्द के प्रयोग से ही प्रतिषेध करते हैं, अन्य शब्द से नहीं, इससे ज्ञात होता है कि इस प्रतिषिद्ध वस्तु का ग्रहण कदाचित् अपवादपद को प्राप्त कर किया जा सकता है। ८२३. सोविय गंथो दुविहो, बज्झो अब्भिंतरो अ बोधव्वो । अंतो अ चोहसविहो, दसहा पुण बाहिरो गंथो ॥ वह भावग्रंथ दो प्रकार का जानना चाहिए - बाह्य और आभ्यन्तर । आभ्यन्तर ग्रंथ के चौदह प्रकार और बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार हैं। ८२४. सहिरन्नगो सगंथो, नत्थि से गंथो त्ति तेण निग्गंथो । अहवा निराऽवकरिसे, अवचियगंयो व निग्नयो । जो हिरण्य सहित होता है वह सग्रंथ है जिसके दोनों प्रकार | का ग्रंथ नहीं है वह निर्ग्रथ होता है। अथवा 'निर्ग्रथ' में जो 'निर्' शब्द है, वह अपकर्ष अपचय में प्रयुक्त है। अतः जिसने संब का अपचय अर्थात् न्यून कर लिया है, वह निग्रंथ है। ८२५. खेत्तं वत्युं धण पत्र संचओ मित्त-णाइ संजोगो । जाण सणा-ऽऽसणाणि य, दासी दासं च कुवियं च ॥ बाह्य ग्रंथ के दस प्रकार ये हैं- क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, संचय, मित्र ज्ञाति तथा संयोग, यान, शयन, आसन, दासदासी तथा कुप्य उपस्कर आदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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