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पहला उद्देशक
तालपलब-पदं
कहते हैं-) मंगल शब्द का निरुक्त इस प्रकार है-मां
लाति-दुर्गति में गिरने वाले प्राणी को ग्रहण कर लेता है। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा
तथा जो पाप को गाल देता है, नष्ट कर देता है, वह है आमे तालपलंबे अभिन्ने पडिगाहित्तए॥
मंगल। इस प्रथम सूत्र में सचित्तवनस्पतिग्रहणरूप पाप को (सूत्र १)
गाल देता है तथा दुर्गति में गिरने वाली आत्मा को धारण
करता है-इस प्रकार के कथन को तुम्हारा अमंगल कहना ८०६. अकार-नकार-मकारा, पडिसेहा होंति एवमाईया। कैसे उचित हो सकता है? यदि तुम्हें प्रतिषेधमात्र अमंगल
सहिरन्नगो सगंथो, अहिरन्न-सुवन्नगा समणा॥ इष्ट है तो फिर धर्म या पाप की सारी अनुज्ञा मंगल हो अकार, नकार, मकार आदि शब्द प्रतिषेधवाचक हैं। यहां जाएगी। तुम सारी अनुज्ञा को मंगल कैसे मानते हो? आदि शब्द से नोकार का ग्रहण किया गया है। जो हिरण्य ८१०.पावाणं समणुण्णा, न चेव सव्वम्मि अत्थि समयम्मि। सहित होते हैं अर्थात् जो परिग्रही होते हैं वे सग्रंथ होते हैं। तं जइ अमंगलं ते, कयरं णु हु मंगलं तुझं। श्रमण अहिरण्यक और असुवर्णक होते हैं।
समस्त सिद्धांत में कहीं भी पाप की समनुज्ञा है ही नहीं। ८०७. नोकारो खलु देसं, पडिसेहयई कयाइ कप्पिज्जा।। यदि पाप-प्रतिषेधक वचन तुम्हारे लिए अमंगल है तो फिर
आमं च अणण्णत्ते, तलो य खलु उस्सए होइ॥ तुम्हारे लिए मंगल कौनसा होगा? 'नोकार' शब्द देशप्रतिषेध में प्रयुक्त होता है। सूत्र में 'नो ८११. पावं अमंगलं ति य, तप्पडिसेहो हु मंगलं नियमा। कप्पई' शब्द है। इस पद में 'नो' देश प्रतिषेधवाचक शब्द है। निक्खेवे वा वुत्तं, जं वा नवमम्मि पुवम्मि॥ इसका तात्पर्यार्थ है कि कदाचित्-अपवादस्वरूप वह कल्पता पाप अमंगल है। उसका प्रतिषेधकवचन नियमतः मंगल भी है। 'आम' शब्द अनन्यत्व में है। अर्थात् अपक्व अवस्था है। इसके आधार पर भी सूत्र मांगलिक है। अथवा नामका द्योतक है। 'ताल' शब्द उच्छ्रय अर्थ में प्रयुक्त होता है। निष्पन्न निक्षेप के प्रसंग में भी 'वंदामि भद्दबाह' कहकर जिसका स्कंध बहुत ऊंचा होता है वह वृक्ष अर्थात् तालवृक्ष। मंगल वचन का कथन किया है तथा नौवें पूर्व-प्रत्याख्यान पूर्व ८०८. पडिलंबणा पलंब, अविदारिय मो वयंति उ अभिन्नं। में प्रारंभ में मंगलाभिधान किया है। इन सबके आधार पर
अहवा वि दव्व भावे, तंपइगहणं निवारेइ॥ प्रस्तुत सूत्र का मांगलिकत्व सिद्ध होता है। 'प्रलंब' का अर्थ है जो अत्यधिक लंबायमान हो। प्रलंब ८१२. अदागसमो साहू, एवं सुत्तं पि जो जहा वयइ। अर्थात् तालवृक्ष का मूल। जो अविदारित होता है वह है तह होइ मंगलमंगलं व कल्लाणदेसिस्स॥ अभिन्न। अथवा अभिन्न के दो प्रकार हैं-द्रव्यतः और भावतः। साधु अद्दाग-दर्पण के समान होता है। दर्पण स्वरूपतः जो द्रव्यतः अविदारित और भावतः सजीव है, उसके ग्रहण निर्मल होता है। उसमें जो जैसा होता है, वैसा प्रतिबिंब का निवारण है। वैसा आम तालप्रलंब नहीं लेना चाहिए। यह पड़ता है। साधु परम मंगल स्वरूप हैं। उनको जो जैसा 'नोकार' शब्द का देश निषेधवाची अर्थ है।
मानता है, उनके लिए वे मंगल-अमंगलरूप होते हैं। इसी ८०९. जं गालयते पावं, मं लाइ व कहममंगलं तं ते। प्रकार सूत्र भी परम मंगलरूप है। उसको जो जिस रूप में
जा य अणुण्णा सव्वा, कहमिच्छसि मंगलं तं तु॥ ग्रहण करता है उसके लिए वह अमंगल या मंगलरूप होता (जिज्ञासु ने कहा-'नो कप्पई' यह प्रथम सूत्र है। कल्याणद्वेषी यदि सूत्र में अमंगलबुद्धि करता है तो उसके प्रतिषेधात्मक होने के कारण अमांगलिक है। तब आचार्य लिए अमंगल होता है। १. हिरण्यं-रूप्यं। सुवर्ण-कनकम् ।
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