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________________ पहला उद्देशक २७५०, एएन होंति दोसा, बहिया सुलभं च भिक्ख उवही य भवसिद्धिया उ वाणा, वियपय गिलाणमादीसु ॥ वर्षावास के पूर्ण होने पर उस क्षेत्र से निर्गमन कर देने पर ये दोष नहीं होते। उस क्षेत्र से अन्य बाहर वाले क्षेत्र में भिक्षा और उपधि सुलभ होते हैं। भवसिद्धिक प्राणी मुनियों से बोध प्राप्त करते हैं। अतः बिहार कर देना चाहिए। द्वितीयपद में ग्लानत्व आदि के कारण विहार नहीं भी किया जाता। २७५१. लम्हा उ विहरियव्वं विहिणा जे मासकप्पिया गामा। छड्डेइ वंदणादी, तइ लहुगा मग्गणा पत्था । इसलिए वर्षावास के पश्चात् मासकल्पप्रायोग्य ग्रामों में विधिपूर्वक विहरण करना चाहिए। जो मासप्रायोग्य क्षेत्रों को वक्ष्यमाण बंदन आदि कारणों से छोड़कर अन्यत्र विहरण करता है, वह जितने क्षेत्र छोड़े हैं उतने ही चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। द्वितीयपद में मासप्रायोग्य क्षेत्रों के परित्याग में जो गुण हैं उनकी मार्गणा पथ्य अर्थात् हितकारी होती है। · २७५२. आयरिय साहु वंदण, चेइय नीयल्लए तहा सन्नी । गमणं च देसदंसण, वइगासु य एवमाईणि ॥ आचार्य साधु, चैत्य की वंदना करने के लिए, अपने स्वजन या श्रावकों को देखने के लिए, देशदर्शन के लिए अथवा गोकुल आदि के लिए इन कारणों से मुनि मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रों को छोड़कर जाता है। २७५३. अप्पुव्व विवित्त बहुस्सुया य परियारखं च आयरिया । परियारवज्ज साहू, चेहय पुव्वा अभिनवा वा ॥ २७५४. गाहिस्सामि व नीए, सण्णी वा भिक्खुमाइ बुग्गाहे । बहुगुण अपुव्व देसो, वइगाइसु खीरमादीणि ॥ अदृष्टपूर्व, विविक्त निरतिचारचारित्रवाले, बहुश्रुत तथा बहुतसाधुपरिवारवाले आचार्य को वंदना करने के लिए, तथा इन गुणों से युक्त परन्तु साधु परिवार से रहित साधुओं को तथा प्राचीन और अभिनव चैत्यों को वंदन करने के लिए बह साधु जाता है। अपने सगे-संबंधियों को बोधि प्राप्त कराऊंगा, श्रावक जो अन्यतीर्थिकों से व्युद्गाहित हो रहे हैं, उनको स्थिर करूंगा- इस दृष्टि से जाता है। अथवा देश अपूर्व और बहुगुणोपेत है उसको देखने के लिए तथा जिका - गोकुल आदि में दूध, दही, घृत आदि का प्रचुर लाभ होता है, इन कारणों से वह मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रों को छोड़कर अन्यत्र जाता है। १. आगाढ़ सात प्रकार का होता है १. द्रव्यागाढ़ - जहां एषणीय द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती। २. क्षेत्रागा अत्यंत खुलक्षेत्र स्वल्प मिशा देने वालों का क्षेत्र । ३. कालागढ़ - जो किसी भी ऋतु के योग्य न हो। Jain Education International २७९ २७५५. अद्धाणे उव्वाता, भिक्खोवहि साण तेण पडिणीए । ओमाण अभोज्ज घरे, थंडिल असतीह जे जत्थ ॥ इस प्रकार गमन करने पर ये दोष होते हैं-मार्ग में विहरण करते हुए मुनि परिश्रान्त हो जाते हैं, भिक्षा प्राप्त नहीं होती, उपधि आदि का अपहरण हो जाता है, कुत्तों का और चोरों का उपद्रव होता है प्रत्यनीक को अवसर मिल जाता है, अपमान हो सकता है, अभोज्यगृहों से भिक्षा लेनी हो सकती है, वहां स्थंडिल भूमी का अभाव होने से संयम और आत्मविराधना होती है। इस प्रकार जहां जो दोष होते हैं, उनकी योजना करनी चाहिए। २७५६. वियप असिवाई उबहिस्स उ कारणा व लेयो वा । बहुगुणतरं व गच्छे, आयरियाई व आगाडे ॥ द्वितीयपद में इन कारणों से उन क्षेत्रों को छोड़ा भी जा सकता है-अशिव आदि कारण होने पर वहां उपधि न मिलने पर, लेप आदि की प्राप्ति न होने पर आगे का क्षेत्र गच्छ के लिए बहुगुणवाला है, इस स्थिति में आचार्य आदि के प्रायोग्य द्रव्यों के न मिलने पर तथा आगाढः योगवाही मुनियों के लिए प्रायोग्य की प्राप्ति न होने पर मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्र को छोड़कर अन्यत्र जाया जा सकता है। २७५७. एएहिं कारणेहिं एक-दगंतर तियंतरं वा वि संकममाणो खेत्तं, पुट्टो वि जओ नऽइक्कमइ ॥ इन सभी कारणों से एक, दो, तीन अपान्तराल क्षेत्रों का अतिक्रमण कर आगे बढ़ने वाला मुनि पूर्वोक्त दोषों से स्पृष्ट होने पर भी दोषवान् नहीं होता क्योंकि वह यतनापूर्वक वैसा कर रहा है, वह यतनावान् मुनि है । २७५८.निक्कारणगमणम्मिं, जे च्चिय आलंबणा उ पडिकुट्ठा । कज्जम्मि संकमंतो, तेहिं चिय सुज्झई जयणा ॥ निष्कारण क्षेत्रसंक्रमण करने में जो आचार्य साधुचैत्यवंदन आदि आलंबन प्रतिकृष्ट प्रतिषिद्ध हैं तथा कार्य अर्थात् द्वितीयपद में ज्ञान दर्शन आदि की शुद्धि के लिए उन्हीं आचार्य आदि के आलंबनों से संक्रमण करता हुआ, यतनावान् मुनि अदोषभाग होता है। - वेरज्ज - विरुद्धरज्ज -पदं नो कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा बेरज्ज विरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं सज्जं ४. भावागाढ़ - ग्लान प्रायोग्य द्रव्य की अप्राप्ति वाला। ५. पुरुषागाढ़ - आचार्य आदि विशिष्ट पुरुषों के लिए अकारक । ६. चिकित्सागाढ़ - वैद्यों से रहित क्षेत्र । ७. सहायागाढ़ - सहायकों की प्राप्ति रहित । (बृ. पृ. ७७७) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.arg
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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