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==बृहत्कल्पभाष्यम् अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, भय अथवा ग्लान हो जाने आ गए हों तो स्वक्षेत्र के प्रतिवृषभग्राम में भिक्षा के लिए पर यह प्रागुक्त द्वितीयपद है। यह दूसरा द्वितीयपद है-ज्ञान- प्रयत्न करते हैं। शय्या दुर्बल हो जाने पर शय्यातर को कह दर्शन और चारित्र इस त्रिक की प्रासि के लिए, आचार्य का कर स्थूणा आदि से उसे टिकाए रखें। देहावसान हो जाने पर अथवा आचार्य द्वारा किसी प्रयोजन- २७४६.दोन्नि उ पमज्जणाओ,उडुम्मि वासासु तइय मज्झण्हे। वश भेजे जाने पर इन कारणों से वर्षाकाल में भी विहरण
वसहिं बहुसो पमज्जण, अइसंघट्टऽन्नहिं गच्छे॥ किया जा सकता है।
आठ ऋतुबद्धमासों में वसति का प्रमार्जन दो बार२७४२.आऊ तेऊ वाऊ, दुब्बल संकामिए अ ओमाणे। पूर्वाह्न और अपराह्न में किया जाता है। वर्षा में तीन बार
पाणाइ सप्प कुंथू, उट्टण तह थंडिलस्सऽसती॥ मध्याह्न में भी प्रमार्जन किया जाता है। आवश्यकतावश अथवा यह अपवाद है-पानी से वसति प्रवाहित हो गई। अनेक बार प्रमार्जन भी किया जा सकता है। यदि अनेक हो, अग्नि से जल गई हो, तेजवायु से यत्र-तत्र गिर गई हो, प्रमार्जन से त्रस प्राणियों का अतिसंघट्टन होता हो तो दुर्बल हो गई हो, किसी प्रत्यनीक को संक्रामित हो गई हो, अन्यत्र ग्राम में चला जाए। अथवा श्राद्धकुल अन्यत्र संक्रामित हो गए हों अन्यतीर्थिकों से २७४७.उत्तण ससावयाणि य, गंभीराणि य जलाणि वज्जेता। अपमानित किए जाने पर, वसति में जीवों का उपद्रव होने
तलियरहिया दिवसओ, अब्भासतरे वए खेते॥ पर, सर्प आदि का निवास हो जाने पर कुंथु आदि सूक्ष्म जिस मार्ग में तृण बहुत ऊंचे हो गए हों, जो मार्ग श्वापदों प्राणियों से वसति संसक्त हो जाने पर, ग्राम उजड़ जान पर और बहुत ऊंडे जल से युक्त हों-इन मार्गों का वर्णन करे। या स्थंडिलभूमी का अभाव हो जाने पर-वर्षावास में विहरण पैरों में बिना कुछ पहनें, दिन में, अत्यंत निकटवर्ती ग्राम में किया जा सकता है।
जाकर रहे। २७४३.मूलग्गामे तिन्नि उ, पडिवसभेसु पि तिन्नि वसहीओ। ठायंता पेहिंति उ, , वियार-वाघायमाइट्ठा।
कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा इन सभी कारणों को ध्यान में रखकर साधु मूलग्राम में हेमंत-गिम्हासु चारए॥ तीन वसतियों की प्रत्युपेक्षा करते हैं तथा प्रतिवृषभग्राम
(सूत्र ३६) अर्थात् जहां भिक्षाचर्या के लिए जाया जाता है वहां भी तीन वसतियों की प्रत्युपेक्षा वर्षाकाल के प्रारंभ होने से पूर्व ही कर २७४८.दुस्संचर बहुपाणादि काउ वासासु जं न विहरिंसु। ली जाती है। मूलग्राम में विचारभूमी और वसति का व्याघात तस्स उ विवज्जयम्मी, चरंति अह सुत्तसंबंधो॥ होने पर प्रतिवृषभग्राम में ठहर जाते हैं।
वर्षाकाल में मेदिनी दुःसंचर तथा बहुप्राणियों से २७४४.उदगा-ऽगणि-वायाइसु,अन्नस्सऽसतीइ थंभणुद्दवणे। संकुल हो जाती है, इसलिए मुनि ग्रामानुग्राम विहरण नहीं
संकामियम्मि भयणा, उट्ठण थंडिल्ल अन्नत्थ॥ करते। वर्षावास के विपर्यय काल में अर्थात् ऋतुबद्धकाल में वहां भी यदि पानी, अग्नि, वायु आदि के कारण किसी भी वे मुनि विहरण करते हैं। यही पूर्वसूत्र के साथ इस सूत्र का प्रकार का व्याघात होता है तो साधु अन्य वसति में जाकर संबंध है। ठहर जाते हैं। अन्य वसति के अभाव में स्तंभनी विद्या के द्वारा २७४९.पुण्णे अनिग्गमे लहुगा, दोसा ते चेव उग्गमादीया। पानी, अग्नि और वायु का स्तंभन करते हैं, सर्प को विद्या के
दुब्बल-खमग-गिलाणा, गोरस उवहिं पडिच्छंति॥ द्वारा अन्यत्र भेज देते हैं। यदि ग्राम संक्रामित कर दिया हो तो वर्षावास के पूर्ण होने पर यदि उस क्षेत्र से निर्गमन नहीं वहां से अन्य वसति में जाने की भजना है-भद्रक कुल वाले हों किया जाता तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त विहित है। वे ही तो वहीं रहे अन्यथा अन्यत्र चले जाएं। ग्राम उजड़ गया हो या उद्गम आदि दोष वहां होते हैं। दूसरे ये दोष भी होते हैंस्थंडिलभूमी का व्याघात हो तो दूसरे ग्राम में चले जाएं। आचाम्ल आदि से शरीर दुर्बल हो गया हो, क्षपक, ग्लान, २७४५.इंदमहादी व समागतेसु परउत्थिएसु य जयंति। गोरस की उपलब्धि न होती हो, उपधि क्षीण हो गई हो-इन
पडिवसभेसु सखित्ते, दुब्बलसेज्जाए देसूणं॥ कारणों से साधु वहां से जाने की प्रतीक्षा करते हैं। निर्गमन न उस ग्राम में यदि इन्द्रमहोत्सव आदि के कारण परतीर्थिक करने पर तद्विषयक परितापना के प्रायश्चित्त विहित है। १. प्रतिवृषभग्राम-यह स्वग्राम से पांच कोश की दूरी तक हो सकता है। यही स्वक्षेत्र है। २. स्वक्षेत्र-सक्रोशयोजनप्रमाण। (वृ. पृ. ७७४)
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