________________
पहला उद्देशक = अकोविद मुनि भी अधिकरण करता है। जानता हुआ गीतार्थ वर्षावास (श्रावण-भाद्रपद) में विहार करने पर अनुद्घात मुनि भी प्रव्रज्या के लिए अयोग्य मुनि के निष्काशन के लिए चार मास अर्थात् चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञा अधिकरण करता है। उसके साथ अधिकरण करके भी आदर आदि दोष, और आत्म-संयमविराधना होती है। इस काल में आदि सभी पदों का समाचरण करता है।
विहरण से छहकाय की विराधना होती है। चलते-चलते
फिसल कर गिरना, विषम भूभाग में स्खलित होना, पांवों चार-पदं
स्थाणु और कांटों का लगना, पानी में बह जाना, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा
रुक्खोल्ल-वृक्ष के नीचे विश्राम करते वृक्ष के गिरने से
विराधना होना, अभिघात-गिरिनदी आदि के मार्ग से जाने से 'वासावासासु चारए'॥ (सूत्र ३५)
अभिघात होना, श्वापद तथा स्तेनों का उपद्रव होना, वर्षा में २७३२.अहिगरणं काऊण च, गच्छइ तं वा वि उवसमेउं जे। भीगने से ग्लान हो जाना ये सारी आपत्तियां वर्षावास में
___पुव्वं च अणुवसंते, खामेस्सं वयइ संबंधो॥ विहरण करने से आती हैं।
अधिकरण करके अन्यत्र ग्राम में चला जाता है। अथवा २७३७.अक्खुन्नेसु पहेसुं, पुढवी उदगं च होइ दुहओ वि। उस अधिकरण को जानकर कोई मुनि उसके उपशमन के
उल्लपयावण अगणी, इहरा पणगो हरिय कुंथू॥ लिए आता है। अथवा पूर्व अधिकरण उपशांत नहीं हुआ है, अक्षुण्ण पथ में विहरण करने से पृथ्वीकाय की विराधना इसलिए उस ग्राम में जाकर क्षमायाचना करूंगा, इस उद्देश्य तथा दोनों प्रकार के अप्काय-भौम और अंतरिक्ष की से वहां जाता है ये सारे पूर्व सूत्र से इस सूत्र के साथ संबंध विराधना होती है। भीगे हुए को सुखाने के लिए अग्नि की स्थापित करते हैं।
विराधना तथा पनक, हरित और कुंथु जीवों की विराधना २७३३.अहवा अखामियम्मि त्ति
होती है। कोई गच्छेज्ज ओसवणकाले। २७३८.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलन्ने। सुभमवि तम्मि उ गमणं,
__आबाहाईएसु व, पंचसु ठाणेसु रीइज्जा॥
वासावासासु वारेइ॥ अपवाद पद में विहरण किया जा सकता है। ये कारण हो अथवा कोई मुनि अधिकरण करने के बाद बिना सकते हैं अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, स्तेन का भय, ग्लान क्षमायाचना किए अन्यत्र चला जाता है। फिर 'ओसवण- या आबाधा आदि पांच स्थान उत्पन्न होने पर। काल' अर्थात् पर्युषणकाल में क्षमायाचना करने के लिए २७३९.आबाहे व भये वा, दुब्भिक्खे वाह वा दओहंसि। उस द्वितीय मुनि के ग्राम में जाता है। यद्यपि यह गमन पव्वहणे व परेहिं, पंचहिं ठाणेहिं रीइज्जा॥ शुभ है, फिर भी यह सूत्र वर्षावास में आने-जाने का निषेध ___ पांच स्थान ये हैं-आबाधा-मानसिक पीड़ा, भय चोरों करता है।
का भय, दुर्भिक्ष, पानी के प्रवाह से गांव या वसति के बह २७३४.वासावासो दुविहो, पाउस वासा य पाउसे गुरुगा। जाने पर, प्रव्यथन-दूसरों द्वारा पीड़ा आदि दिए जाने पर-इन
वासासु होति लहुगा, ते च्चिय पुण्णे अणितस्स॥ पांच कारणों से विहार किया जा सकता है। वर्षावास के दो प्रकार हैं-प्रावृड और वर्षारात्र। श्रावण २७४०.एतं तु पाउसम्मी, भणियं वासासु नवरि चउलहुगा। और भाद्रपद-प्रावृड और आश्विन और कार्तिक-वर्षारात्र।' ते चेव तत्थ दोसा, बिदयपदं तं चिमं वऽन्नं॥ प्रावृड में विहरण करने पर चतुर्गुरु और वर्षारात्र में विहरण पूर्वोक्त प्रायश्चित्त अपवादरूप में प्रावृइ में विहार करने पर चतुर्लघु। वर्षारात्र के पूर्ण होने पर उस गांव से करने पर होते हैं। वर्षारात्र-आश्विन, कार्तिक में विहार विहार न करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है।
करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। वहां वे ही दोष होते हैं २७३५.वासावासविहारे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। तथा अपवादपद भी वही है। अथवा यह अपवादपद भी हो
आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए। सकता है२७३६.छक्कायाण विराहण, आवडणं विसम-खाणु-कंटेसु। २७४१.असिवे ओमोयरिए, रायडुढे भए व गेलन्ने।
वुब्भण अभिहण रुक्खोल्ल, सावय तेणे गिलाणे य॥ नाणादितिगस्सऽट्ठा, वीसुंभण पेसणेणं वा॥ १. बृहद्चूर्णि में-पाउसो सावणो भद्दवओ य, वासारत्तो आसाओ-कत्तियओ अ ति। विशेष चूर्णि-पाउसो आसाणे सावणो य, वासारत्तो भद्दवओ
अस्सोगे अत्ति। यह मतभेद है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org