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बहुपर, प्रधानपर और भावपर - इस प्रकार परनिक्षेप मूलभेद की अपेक्षा से दस प्रकार का है।
२७२०. परमाणुपुग्गलो खलु तद्दव्वपरो भवे अणुस्सेव । अन्नद्दव्वपरो खलु, दुपएसियमाइणो तस्स ॥ परमाणु पुद्गल का अपर परमाणु पुद्गल परतया विचार करने पर वह तद्द्रव्यपर होता है। उसी परमाणुपुद्गल के दिप्रदेशिक आदि स्कंध परतया विचार किए जाने पर अन्यद्रव्यपर होते हैं।
२७२१. एमेव य खंघाण वि, तदव्वपरा उ तुल्लसंघाया। जे उ अतुल्लपएसा, अणू य तस्सऽन्नदव्वपरा ॥ इसी प्रकार स्कंधों के भी तुल्यसंघात वाले स्कंध तद्द्रव्यपर होते हैं। अतुल्यप्रदेश वाले स्कंध तथा अणु-ये सब अन्यद्रव्यपर होते हैं।
२७२२. एगपएसोगाढादि खेत्ते एमेव जा असंखेज्जा । एगसमयाइठिहणो कालम्मि वि जा असंखेज्जा ॥ इसी प्रकार एकप्रदेशावगाढ़ परमाणु से असंख्येयप्रदेशावगाढ़ पर्यन्त जानना चाहिए। जैसे- एकप्रवेशावगाढ़ तत्क्षेत्रपर होता है और द्विप्रदेशावगाढ़ आदि अन्यक्षेत्रपर होता है।
इसी प्रकार कालविषयक भी यही स्थिति है। एक समय की स्थितिवाले पुद्गल से एक समय स्थितिवाले पुद्गल तत्कालपर और द्वि आदि समय स्थितिवाले अन्यकालपर होते हैं। इसी प्रकार असंख्येय समय की स्थितिवाले पुद्गल समान स्थितिवालों के साथ तत्कालपर और शेष एकसमय की स्थितिवालों के साथ अन्यकालपर होते हैं। २७२३. भोअण-पेसणमादीसु एगखित्तट्ठियं तु जं पच्छा ।
आदिसह भुंज कुणसु व आएसपरो हवह एस ॥ भोजन, प्रेषण कार्य में व्याप्त करने आदि में एकक्षेत्रस्थित व्यक्ति को पश्चात् अन्त में आदेश दिया जाता है कि जाओ, तुम भोजन करो अथवा यह कार्य करो यह आदेशपर है। तात्पर्य है कि 'पर' व्यक्ति आज्ञापित होता है। २७२४. दव्वाइ कमो चउहा, दव्वे परमाणुमाइ जाऽणतं । एगुत्तरखुट्टीए विवड्डिया परो होइ ॥ क्रम का अर्थ है परिपाटी । उसकी अपेक्षा 'पर' चार प्रकार का है- द्रव्यक्रमपर, क्षेत्रक्रमपर, कालक्रमपर और भावक्रमपर। द्रव्यक्रमपर है परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कंध पर्यन्त एकोत्तर प्रदेशवृद्धि से बढ़ते हुए, जो जिसकी अपेक्षा से 'पर' है वह उससे द्रव्यक्रमपर होता है (वृत्ति में वृत्तिकार ने अन्य क्रमपरों का भी वर्णन दिया है।)
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बृहत्कल्पभाष्यम्
२७२५. जीवा पुग्गल समया, दव्व पएसा य पज्जवा चेव । थोवा णंता णंता, विसेसमहिया दुवेऽणंता ॥ जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे पुद्गल अनन्तगुणा, उनसे समय अनन्तगुणा, उनसे द्रव्य विशेषाधिक, उनसे प्रदेश अनन्तगुणा, उनसे पर्याय अनन्तगुणा होते हैं । २७२६. बब्बे सचित्तमादी, सचित्तदुपएस होइ तित्थयरो
सीहो चउप्पएसुं, अपयपहाणा बहुविहा उ॥ प्रधानपर के दो प्रकार हैं- द्रव्यप्रधानपर और भावप्रधानपर। द्रव्यप्रधानपर के तीन भेद हैं- सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्तप्रधान के तीन प्रकार हैं-द्विपद, चतुष्पद और अपद द्विपद में तीर्थंकर प्रधान होते हैं चतुष्पद में सिंह प्रधान होता है। अपदप्रधान बहुविध होते हैं। (सचित्त में सुदर्शनवृक्ष, जम्बूवृक्ष, पनस आदि । अचित्त धातु में स्वर्ण, वस्त्र में चीनांशुक, गंधद्रव्य में गोशीर्षचन्वन, मिश्र में स्वर्ण आदि से अलंकृत मूर्ति आदि) ।
२७२७. वण्ण-रस-गंध फासेसु उत्तमा जे उ भू-दग-वणेसु ।
मणि खीरोवगमादी, पुष्फ-फलादी य रुक्खेसु ॥ जो पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय वर्ण, रस, गंध और स्पर्श में उत्तम होते हैं वे भावप्रधानपर हैं। जैसे पृथ्वीकाय में मणि, अप्काय में क्षीरोदक और वनस्पतिकाय में पुष्प और फलवाले वृक्ष ।
२७२८. आढणमन्भुद्वाणं वंदण संभुंजणा य संवासो ।
एयाई जो कुणई, आराहण अकुणओ नत्थि ॥ २७२९. अकसायं निव्वाणं, सव्वेहि वि जिणवरेहिं पन्नत्तं ।
सो लब्भह भावपरो, जो उवसंते अणुवसंतो॥ जो मुनि आहार अभ्युत्थान, वंदन, संभोजन ये पद उपशांत होकर करता है, उसके आराधना होती है, जो ये पद नहीं करता उसके आराधना नहीं होती।
सभी जिनेश्वर देवों ने कहा- अकषाय निर्वाण है। जो अनुपशांत मुनि उपशांत मुनि के प्रति आदर आदि पद नहीं करता, वह भावपर अर्थात् औदयिकभाव को प्राप्त होता है। क्योंकि उसके मन में अभी भी कषाय हैं। २७३०. सो वट्टइ ओदइए, भावे तं पुण खओवसमियम्मि | जह सो तुह भावपरो, एमेव य संजम - तवाणं ॥ वह औदधिकभाव में प्रवर्तित है और तुम क्षायोपशमिकभाव में प्रवृत्त हो । अतः वह तुम्हारे से अपरभाव में है तथा वह संयम और तप से भी पर है - पृथग है।
२७३१ खेलाकोविओ वा अनलविगिंचया व जाणं पि
अहिगरणं तु करेत्ता, करेज्ज सव्वाणि वि पयाणि ॥ क्षिप्तचित्त, दृप्तचित्त, यक्षाविष्ट मुनि अधिकरण करते हैं।
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