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पहला उद्देशक
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पक्षग्रहण करने पर कलह होता है और उससे गणभेद हो जाता है। कोई एक पक्ष राजकुल में जाकर इस कलह की सूचना देता है अथवा सूचक-राजपुरुषों द्वारा राजा को ज्ञापित करने पर, ग्रहण-आकर्षण आदि दोष होते हैं। २७११.वत्तकलहो वि न पढइ, अवच्छलत्ते य दंसणे हाणी।
जह कोहाइविवड्डी, तह हाणी होइ चरणे वि॥ कलह के समाप्त हो जाने पर भी जो पढ़ने से विमुख होता है, उसके ज्ञान की हानि होती है। साधु-प्रद्वेष से साधर्मिक मुनियों का वात्सल्य नहीं रहता। इससे दर्शन की हानि होती है। जैसे-जैसे कषायों की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे चारित्र की हानि होती है। २७१२.अकसायं खु चरित्तं, कसायसहितो न संजओ होइ।
साहूण पदोसेण य, संसारं सो विवड्ढेइ। निश्चयनय के अनुसार अकषाय ही चारित्र है। कषायसहित कोई संयत नहीं होता। साधुओं के प्रति प्रद्वेष रखने वाला मुनि संसार-भवभ्रमण को बढ़ाता है। २७१३.आगाढे अहिगरणे, उवसम अवकड्डणा य गुरुवयणं ।
उवसमह कुणह ज्झायं, छड्डणया सागपत्तेहिं॥ कर्कश अधिकरण हो जाने पर दोनों को उपशांत करना चाहिए। पार्श्वस्थित मुनि दोनों का अपसारण करे। गुरु उनको कहे-कलह का उपशमन कर ध्यान करो, स्वाध्याय करो। अनुपशांत के न ध्यान होता है और न स्वाध्याय। तुम द्रमक की भांति कनकरस को शाकपत्रों के लिए क्यों फेंक रहे हो?
(एक परिव्राजक ने दीन-हीन द्रमक से पूछा-इतने चिंतातुर क्यों हो? उसने कहा-मैं दरिद्रता से अभिभूत हूं। 'परिव्राजक बोला-यदि तुम मेरे कथनानुसार चलोगे, करोगे तो मैं तुम्हें वैभवशाली बना दूंगा। उसने परिव्राजक की बात स्वीकार कर ली। दोनों चले। एक निकुंज में प्रविष्ट होकर परिव्राजक ने कहा यह कनकरस है। इसके ग्रहण का उपचार (विधि) यह है कि जो उसे ग्रहण करता है वह शीत, आतप, परिश्रम, क्षुधा, पिपासा सहन करता हुआ, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ, अचित्त कंदमूल का भोजन करता हुआ, कषायों का उपशमन कर, शमीवृक्ष के पुटकों में इसे ग्रहण करे। यह इसको ग्रहण करने की विधि है।' द्रमक ने वैसे ही किया और एक तुंबक को कनकरस से भरकर, दोनों वहां से चले। परिव्राजक ने कहा यह बहुमूल्य रस है। इसको क्रोधवश फेंकना नहीं हैं।' चलतेचलते परिव्राजक बार-बार कहता-तुम मेरे प्रभाव से धनी बन जाओगे। द्रमक ने एक-दो बार सुना। फिर रुष्ट होकर
बोला तुम्हारे प्रभाव से मैं धनी बनूं, यह मुझे इष्ट नहीं है। उसने उस कनकरस को फेंक दिया। तब परिव्राजक बोला-अरे दुरात्मन् ! यह तुमने क्या किया? कषाय के कारण इतने बड़े लाभ से हाथ धो बैठा?) २७१४.जं अज्जियं समीखल्लएहिं तव-नियम-बंभमइएहिं।
तं दाणि पच्छ नाहिसि, छड्डितो सागपत्तेहिं।। परिव्राजक ने कहा-जो तुमने तप, नियम, ब्रह्मचर्य से अर्जित गुण रूप कनकरस को तप आदि रूप शमीवृक्ष के पत्रपुटकों में एकत्रित किया था, उसको फेंक दिया। अब तुम जान पाओगे कि तुमने शाकवृक्ष के पत्रतुल्य कषाय के कारण स्वयं की आत्मा को गुणों से रिक्त कर डाला है। २७१५.जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए।
तं पि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहत्तेण ॥ जो चारित्र देशोनपूर्वकोटी वर्षों में अर्जित किया है, उसको भी कषायितमात्र व्यक्ति एक मुहुर्त में विनष्ट कर देता है। २७१६.आयरिय एगु न भणे, अह एगु निवारि मासियं लहुगं।
राग-दोसविमुक्को, सीयघरसमो उ आयरिओ। दो मुनि अधिकरण कर रहे हैं। आचार्य एक को कुछ नहीं कहते, एक को कलह करने से निवारित करते हैं। इस प्रवृत्ति से आचार्य को लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। आचार्य शीतघर के समान होते हैं। वे राग-द्वेष से विप्रमुक्त होते हैं। २७१७.वारेइ एस एयं, ममं न वारेइ पक्खरागेणं।
बाहिरभावं गाढतरगं च मं पेक्खसी एक्वं॥ आचार्य अमुक मुनि को कलह से निवारित करता है। तब दूसरा सोचता है-आचार्य मुझे परबुद्धि से देखते हैं, अतः मुझे निवारित नहीं करते। इस पक्षराग के कारण वह मुनि बाह्यभाव को प्राप्त हो जाता है अथवा कलह को बढ़ा देता है अथवा वह आचार्य को कहता है-आप मुझ एक को बाह्यरूप से देखते हैं। २७१८.उवसंतोऽणुवसंतं, तु पासिया विन्नवेइ आयरियं ।
तस्स उ पण्णवणट्ठा, निक्खेवो पर इमो होइ॥ २७१९.नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तदन्नमन्ने ।
आएस कम बहु पहाण भावओ उ परो होइ॥ उपशांत मुनि अनुपशांत मुनि को देखकर आचार्य को निवेदन करता है कि अमुक मुनि उपशांत नहीं हो रहा है। तब आचार्य उसको प्रज्ञापित करने के लिए 'परनिक्षेप' करते हैं। 'परनिक्षेप' यह है-नामपर, स्थापनापर, द्रव्यपर, क्षेत्रपर, कालपर। ये द्रव्यपर आदि प्रत्येक दो-दो प्रकार के होते हैंतद्रव्यपर और अन्यद्रव्यपर। तथा आदेशपर, क्रमपर,
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