________________
२७४
=बृहत्कल्पभाष्यम् परप्रत्ययिक क्रिया-कर्मबंध हमारे नहीं होता। इसलिए और वृक्षों की छाया में विश्राम करने आता-जाता था। एक परार्थ को छोड़कर आत्मार्थ में प्रयत्नशील रहना चाहिए। दिन वहीं दो शरट परस्पर झगड़ने लगे। यह देखकर इसीलिए उपेक्षा की बात कही गई है। आचार्य कहते हैं- वनदेवता ने सबको सचेत करते हुए कहाउपेक्षा गुण है परन्तु वह भी इस प्रकार दोष हो जाता है।' 'हे हाथियो! हे सभी जलचर प्राणियो! तथा सभी त्रस (उपेक्षा सर्वत्र गुणकारी नहीं होती।)
और स्थावर जीवो! सुनो जो मैं कहता हूं। जहां तालाब के २७०२.जइ परो पडिसेविज्जा, पावियं पडिसेवणं। पास शरट लड़ रहे हों तो तुम जान लो कि वहां विनाश होने
मज्झ मोणं चरंतस्स, के अद्वे परिहायई॥ वाला है।' यदि कोई मुनि पापिका प्रतिसेवना (अकुशलकर्मरूप इतना सुनने पर भी उन प्राणियों ने सोचा-ये शरट हमारा अधिकरण आदि) की प्रतिसेवना करता है तो मेरा क्या? क्या बिगाड़ लेंगे? इतने में दोनों शरट लड़ते-लड़ते विश्राम मौन का आचरण करने वाले मेरे क्या कोई ज्ञान आदि के कर रहे हाथियों के निकट आ गए। एक शरट, बिल अर्थ की परिहानि होती है? कुछ भी नहीं।
समझकर, हाथी के सूंड में घुस गया। दूसरा भी उसके पीछे २७०३.आयढे उवउत्ता, मा य परट्टम्मि वावडा होह।। उसी सूंड में घुस गया। भीतर शिर-कपाल में जाकर वहां
हंदि परट्ठाउत्ता, आयट्ठविणासगा होति॥ लड़ने लगे। हाथी को बहुत कष्ट होने लगा। वह आकुलआत्मार्थ में उपयुक्त होना ही उत्तम है। परार्थ में कभी व्याकुल होकर उठा और उस वनखंड को चूर-चूर करता व्याप्त मत होओ। जो परार्थ में उपयुक्त होते हैं वे आत्मार्थ के हुआ, उस तालाब में प्रविष्ट हो गया। वनखंड में अनेक विनाशक होते हैं।
स्थलचर प्राणी नष्ट हो गए। तालाब की पाल तोड़ डाली। २७०४.एसो वि ताव दम्मउ, हसइ व तस्सोमयाए ओहसणा। सभी जलचर प्राणी विनष्ट हो गए।
उत्तरदाणं मा ओसराहि अह होइ उत्तुअणा।। इसलिए कलह छोटा हो या बड़ा, उसकी उपेक्षा नहीं दो मुनि कलह कर रहे हैं। एके कुछ खिन्न हो रहा है। करनी चाहिए। उसके तत्काल उपशमन का प्रयत्न करना दूसरा मुनि कहता है इसका भी (जो खिन्न नहीं हो रहा है) चाहिए। दमन करना चाहिए। एक की अवमानना होने पर दूसरा २७०८.तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण-चरित्त-नाणाणं। हंसता है, यह उपहास है। दोनों के बीच कोई कहता है-उत्तर
साहपदोसो संसारवड्वणो साहिकरणस्स। देते रहना। अपने निश्चय से मत हटना। तुम उससे हार मत अधिकरण के ये दोष हैं-ताप, भेद, अकीर्ति, ज्ञान-दर्शन मान लेना। यह उसको उत्तेजना देना है।
और चारित्र की हानि, साधुओं में प्रद्वेष और संसार का २७०५.वायाए हत्थेहि व, पाएहि व दंत-लउडमादीहिं। प्रवर्धन।
जो कुणइ सहायत्तं, समाणदोसं तयं बेति॥ २७०९.अइभणिय अभणिए वा, तावो भेदो उ जीव चरणे वा। दो व्यक्ति कलह कर रहे हैं। एक के पक्ष में होकर जो रूवसरिसं न सीलं, जिम्हं व मणे अयस एवं॥ वाणी से, हाथों से, पैरों से, दांतों से तथा लकड़ी आदि से ताप दो प्रकार का होता है-प्रशस्त और अप्रशस्त । उनका सहयोग करता है, वह भी कलहकारी व्यक्तियों की अतिभणित प्रशस्त ताप है। व्यक्ति सोचता है-मैंने उसे बहुत भांति ही दोषी है, ऐसा तीर्थंकरों ने कहा है।
ज्यादा कह डाला। अभणित अप्रशस्त ताप है। व्यक्ति २७०६.नागा! जलवासीया!, सुणेह तस-थावरा!। सोचता है-मैंने उसे बहुत कम कहा। मुझे उसके ये-ये दोष
सरडा जत्थ भंडंति, अभावो परियत्तई। उद्घाटित करने थे। भेद का अर्थ है-कलह करके स्वयं का २७०७.वणसंड सरे जल-थल-खहचर वीसमण देवया कहणं। जीवितभेद या चारित्रभेद कर देना। लोग कहने लगते
वारेह सरडुवेक्खण, धाडण गयनास चूरणया॥ हैं-इसके रूप के सदृश शील नहीं है। अथवा इसने कुछ जो अधिकरण कलह की उपेक्षा करते हैं, उससे क्या लज्जनीय कार्य किया है, इसलिए यह म्लानवदन दिख रहा अनर्थ होता है वह निम्न निदर्शन से बताया गया है
है। इस प्रकार उसका अयश होता है। एक अरण्य के मध्य एक विशाल तालाब था। उसमें २७१०.अक्कट्ठ तालिए वा, पक्खापक्खि कलहम्मि गणभेदो। जलचर, स्थलचर और खेचर प्राणी थे। वहीं एक विशाल एगयर सूयएहिं व, रायादीसिटे गहणादी॥ हस्तीयूथ था। वह यूथ उस तालाब में पानी पीने, क्रीड़ा करने आकुष्ट या ताडित होने पर साधुओं का परस्पर १. असंयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा गुण है, संयतों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा महान् दोष है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org