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पहला उद्देशक = होकर अनेक दुःखों का अनुभव करता है।) इसी प्रकार जिस मनुष्य का धृतिबल और शरीरबल होता है वह कर्मों का क्षय कर देता है। जिसमें ये दोनों बल नहीं होते, वे कर्म के वशीभूत होकर दुःख पाते हैं। २६९२.सहणोऽसहणो कालं, जह धणिओ एवमेव कम्मं तु।
उदिया-ऽणुदिए खवणा, होज्ज सिया आउवज्जेसु॥ धनिक दो प्रकार के होते हैं-सहिष्णु और असहिष्णु। जो सहिष्णु होता है वह काल की प्रतीक्षा करता है। इसी प्रकार कर्म भी, काल की पूर्ति होने पर अथवा पूर्ति के बिना भी अपना विपाक दिखाते हैं। जो धृतिसंपन्न, संहननसंपन्न होते हैं वे आयुष्यकर्म को छोड़कर उदीर्ण और अनुदीर्ण शेष कर्मों की क्षपणा कर देते हैं। किन्हीं के ऐसा होता भी है और किन्हीं के यह नहीं भी होता।
(इस प्रकार जीव और कर्म दोनों की यथायोग्य बलवत्ता है। यह श्लोक इसका वाचक हैदृग्नाशो ब्रह्मदत्ते भरतनृपजयः सर्वनाशश्च कृष्णे, नीचैर्गोत्रावतारश्चरमजिनपतमल्लिनाथेऽबलात्वम । निर्वाणं नारदेऽपि प्रशमपरिणतिः सा चिलातीसुतेऽपि, इत्थं कर्मात्मवीर्ये स्फुटमिह जयतां स्पर्द्धया तुल्यरूपे॥
(वृ. पृ. ७५८) २६९३.सच्चित्ते अच्चित्ते, मीस वओगय परिहार देसकहा।
सम्ममणाउट्टते, अहिगरणमओ समुप्पज्जे॥ भावाधिकरण की उत्पत्ति के हेतु-सचित्त, अचित्त, मिश्र, वचोगत, परिहार, देशकथा-इन स्थानों में वर्तन न करने की प्रेरणा देने पर जो सम्यग स्वीकार नहीं करता, इससे अधिकरण उत्पन्न होता है। (गाथा की विस्तृत व्याख्या आगे की गाथाओं में)। २६९४.आभव्वमदेमाणे, गिण्हत तहेव मग्गमाणे य।
सच्चित्तेतरमीसे, वितहापडिवत्तिओ कलहो॥ किसी आचार्य के पास शैक्ष-शैक्षिका प्रव्रज्या लेने आते हैं, वे उस आचार्य के आभाव्य होते हैं। उनको यदि कोई दूसरा आचार्य ग्रहण कर लेता है, या पूर्वगृहीत आभाव्य की याचना करने पर वह आचार्य वितथप्रतिपत्तियों-झूठे तर्कों से उसे झुठला देता है तो कलह होता है। आभाव्य सचित्त, अचित्त और मिश्र हो सकता है। (सचित्त-शैक्ष-शैक्षिका। अचित्त-वस्त्र, पात्र आदि। मिश्र-सभांडोपकरण शैक्ष आदि।) २६९५.विच्चामेलण सुत्ते, देसीभासा पवंचणे चेव।
अन्नम्मि य वत्तव्वे, हीणाहिय अक्खरे चेव॥ सूत्र विषयक व्यत्यामेडित (अन्यान्य सूत्रालयों को यत्र- तत्र मिलाकर बोलना), अपनी-अपनी देशीभाषा बोलने पर,
प्रपंच नाना प्रकार की चेष्टाएं करना, अन्य के बोलने के समय अन्य का बोलना, हीनाक्षर, अत्याक्षर पद बोलनारोकने पर ये सब कलह के कारण होते हैं। २६९६.परिहारियमठवेंते, ठवियमणट्ठाए निव्विसंते वा।
कुच्छियकुले व पविसइ, चोइयऽणाउट्टणे कलहो॥ परिहारिक कुल वे होते हैं जहां गुरु, ग्लान, बाल आदि मुनियों के लिए प्रायोग्य भक्त-पान प्राप्त हो जाता है। यदि उनकी स्थापना न की जाए या स्थापित करने पर भी निष्कारण उनमें प्रवेश किया जाए और यदि उसमें जाने से रोका जाए तो कलह होता है। अथवा परिहारिककुल अर्थात् कुत्सित कुल में मुनि जाता है तो रोकने पर यदि नहीं रुकता है तो कलह होता है। २६९७.देसकहापरिकहणे, एक्के एक्के व देसरागम्मि।
मा कर देसकहं ति य, चोइय अठियम्मि अहिगरणं ॥ __ अनेक मुनि देशकथा में संलग्न हैं। अलग-अलग मुनियों की भिन्न-भिन्न देश के प्रति रागभाव होता है। वह उसकी प्रशंसा करता है, दूसरा उसका खंडन करता है। कोई कहता है देशकथा मत करो। यदि वे मुनि उपरत नहीं होते हैं तो कलह होता है। २६९८.जो जस्स उ उवसमई, विज्झवणं तस्स तेण कायव्वं ।
जो उ उवेहं कुज्जा, आवज्जइ मासियं लहुगं॥ जो साधु जिस साधु को कुपित कर देता है, वह उस क्रोध का उपशमन करे, उससे क्षमायाचना करे। जो उपेक्षा करता है, उसे लघुमासिक का प्रायश्चित्त आता है। २६९९.लहुओ उ उवेहाए, गुरुओ सो चेव उवहसंतस्स।
उत्तुयमाणे लहुगा, सहायगत्ते सरिसदोसो॥ जो उपेक्षा करता है उसे लघुमास का प्रायश्चित्त और जो उपहास करता है उसे गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा जो कलह करने वाले को उत्तेजित करता है उसे चार लघुक तथा जो कलह में सहायक होता है, उसे कलह करने वाले की भांति प्रायश्चित्त आता है अर्थात् चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २७००.चउरो चउगुरु अहवा, विसेसिया होति भिक्खुमाईणं।
अहवा चउगुरुगादी, हवंति ऊ छेद निट्ठवणा॥ भिक्षु, वृषभ, उपाध्याय और आचार्य-इनके कलह करने पर प्रत्येक को चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। अथवा वे ही चतुर्गुरु तप और काल से विशेषित होते हैं। अथवा चतुर्गुरु से प्रारंभ कर उस प्रायश्चित्त की छेद में निष्ठापना होती है। २७०१.परपत्तिया न किरिया, मोत्तु परटुं च जयसु आयटे।
अवि य उवेहा वुत्ता, गुणो वि दोसो हवइ एवं॥
शिक्ष,
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