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तुपमा
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=बृहत्कल्पभाष्यम् २६८२.अह-तिरिय-उड्ढकरणे,
अगुरुलघु हैं। (आनपान, कार्मणप्रायोग्य-द्रव्य तथा उसके बंधण निव्वत्तणा य निक्खिवणं। अपान्तरालवर्ती द्रव्य ये सारे अगुरुलघु हैं।) उवसम-खएण उहूं,
२६८७.अहवा बायरबोंदी, कलेवरा गुरुलहू भवे सव्वे।
उदएण भवे अहेगरणं॥ सुहुमाणंतपदेसा, अगुरुलहू जाव परमाणू॥ कषायों का उदय भावाधिकरण है। अधोगति, तिर्यक्रगति ____ अथवा बादरबोंदी-बादरनामकर्मोदयवर्ती जीवों के कलेवर तथा ऊर्ध्वगतिनयन में उनका स्वरूप क्या होता है, उसकी तथा सारे बादर परिणामपरिणत द्रव्य-भू, भूघर, इन्द्रधनुष, मीमांसा करनी चाहिए। बंधन का अर्थ है-संयोजना, गांधर्व नगर आदि गुरुलघु होते हैं। सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्ती निर्वर्तना, निक्षेपणा और निसर्जना। कषायों के उदय से जंतुओं के शरीर तथा अनन्तप्रदेशी से परमाणु पर्यन्त सभी अधोगतिगमन होता है और उपशम और क्षय से ऊर्ध्वगति द्रव्य अगुरुलघु होते हैं। गमन होता है।
२६८८.ववहारनयं पप्प उ, गुरुया लहुया य मीसगा चेव। २६८३.तिव्वकसायसमुदया, गुरुकम्मुदया गती भवे हिट्ठा।
लेट्टग पदीव मारुय, एवं जीवाण कम्माई॥ नाइकिलिट्ठ-मिऊहि य, उववज्जइ तिरिय-मणुएसु॥ व्यवहारनय के अनुसार द्रव्य तीन प्रकार के होते हैंतीव्र कषाय के उदय से गुरुकर्म-ज्ञानावरणीयादि गुरुक, लघुक और गुरुक-लघुक (मिश्र)। पत्थर गुरुक है। का उपचय होता है और उससे अधस्ताद् गति होती है। प्रदीपकलिका लघुक है और पवन-गुरुलघुक है। इसी प्रकार जो कषाय अतिक्लिष्ट नहीं होते, उनके उदय से जीव जीवों के कर्म भी तीन प्रकार के होते हैं-गुरुक, लघुक और तिर्यक-गति में उत्पन्न होता है और जो कषाय मृदु होते हैं, गुरुक-लघुक (मिश्र)। प्रतनु होते हैं उनके उदय से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न २६८९.कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। होता है।
रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो। २६८४.खीणेहि उ निव्वाणं, उवसंतेहि उ अणुत्तरसुरेसु। जीव कर्मों को बांधने में स्वतंत्र होता है, परन्तु कर्मों के
जह निग्गहो तह लह, समुवचओ तेण सेसेसु॥ उदय में वह परवश होता है, परतंत्र होता है। जैसे कषायों के क्षीण होने पर निर्वाण प्राप्त होता है। उनके पर चढ़ने में स्ववश होता है, परंतु उससे स्खलित-विगलित . उपशांत होने पर जीव अनुत्तर देवों में उत्पन्न होते हैं। इन होने में वह परवश होता है। कषायों का जैसा निग्रह होता है, वैसा ही जीव लघु होता २६९०.कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। जाता है। यदि वैसा निग्रह नहीं है तो कर्मों का समुपचय होता कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं॥ है और तब जीव अनुत्तर विमानवासी देवों में उत्पन्न न होकर (शिष्य ने पूछा-क्या संसारी जीव कर्मपरवश होते हैं ? शेष देवलोकों में उत्पन्न होता है।
आचार्य ने कहा नहीं, यह एकान्ततः सत्य नहीं है।) २६८५.गुरुयं लहुयं मीसं, पडिसेहो चेव उभयपक्खे वि। संसारी जीव कर्म के वशीभूत होते हैं। परन्तु कहीं-कहीं
तत्थ पुण पढमबिइया, पया उ सव्वत्थ पडिसिद्धा॥ कर्म जीव के वशीभूत होते हैं। कहीं धनिक (ऋण देने वाला) व्यवहार से द्रव्य चार प्रकार का होता है-गुरुक, लघुक, बलवान् होता है और कहीं धारणिक (ऋण लेने वाला) मिश्र अर्थात् गुरु-लघुक और उभयतः प्रतिषेध अर्थात् न बलवान होता है। गुरुक और न लघुक। इनमें जो प्रथम और द्वितीय पद है २६९१.धणियसरिसं तु कम्म, (गुरुक और लघुक) वे सर्वत्र प्रतिषिद्ध हैं।'
धारणिगसमा उ कम्मिणो होति। २६८६.जा तेयगं सरीरं, गुरुलह दव्याणि कायजोगो य।
संताऽसंतधणा जह, मण-भासा अगुरुलह, अरूविदव्वा य सव्वे वि॥
धारणग धिई तणू एवं॥ औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर पर्यन्त द्रव्य धनिक के सदृश होते हैं कर्म और धारणिक के सदृश तथा उनका काययोग-शरीरव्यापार-यह सारा गुरु-लघुक है। होते हैं सकर्मक जीव। धारणिक दो प्रकार के होते हैं-धन मन और भाषा के पुद्गल अगुरुलघु तथा जितने अरूपी द्रव्य वाले और अधनवाले। (धनवान् धारणिक अपना ऋण चुका हैं (धर्मास्ति, अधर्मास्ति, आकाशास्ति, जीवास्ति) ये सब कर मुक्त हो जाता है और अधनवाला धनिक के वशीभूत १. निश्चयमत के अनुसार संसार में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जो एकांततः गुरुक हो या लघुक हो। इसलिए संसार में जितनी बादर वस्तुएं हैं वे सब
गुरुलघु और शेष पदार्थ अगुरुलघु है। (वृ. पृ. ७५६) Jain Education International
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