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________________ पहला उद्देशक = २७१ प्रकार संबंध स्थापित होता है, और वह गाढ़तर होता अप्पणा चेव उवसमियव्वं। से किमाहु जाता है। भंते? उवसमसारं सामन्नं ।। २६७३.सुत्तनिवाओ पासेण गंतु बिइयपय कारणज्जाए। (सूत्र ३४) सालाए मज्झे छिंडी, सागारिय निग्गहसमत्थो॥ सूत्रनिपात यह है कि पार्श्व से निर्गमन-प्रवेश करते हैं, २६७६.एगत्थ कहमकप्पं, कप्पं एगत्थ इच्चऽसद्दहतो। अध्वनिर्गत निर्ग्रथिनीयां अपवादपद में कारण होने पर वहां पडिसिद्धे व वसंते, निवारण वइक्कमे कलहो। रह सकती हैं। वहां शाला में, गृहमध्यभाग में या छिंडिका में एकत्र अर्थात् गृहपतिकुल के मध्य में साधुओं का रहना रहा जा सकता है यदि शय्यातर निग्रहसमर्थ हो तो। अकल्प्य कैसे हो जाता है और साध्वियों के लिए कल्प्य २६७४.पासेण गंतु पासे, व जं तु तहियं न होइ पच्छित्तं। कैसे हो जाता है? अथवा प्रतिषिद्ध वसति में रहने का किसी मज्झेण व जं गंतुं, पिह उच्चारं घरं गुत्तं॥ ने निवारण किया, उसका व्यतिक्रम करने पर कलह होता है। २६७५.दुज्जणवज्जा साला, सागारअवत्तभूणगजुया वा। २६७७.घेप्पंति चसदेणं, गणि आयरिया य भिक्खुणीओ य। एमेव मज्झ छिंडी, निय-सावग-सज्जणगिहे वा॥ अहवा भिक्खुग्गहणा, गहणं खलु होइ सव्वेसिं॥ जहां पार्श्व से निर्गमन-प्रवेश करते हैं अथवा वह गृहपति प्रस्तुत सूत्र में 'च' शब्द से गणी, आचार्य तथा निवास के पास है, वहां रहने से कोई प्रायश्चित्त नहीं है। जिस भिक्षुणीयों का ग्रहण किया गया है। अथवा भिक्ष के ग्रहण से तिकुल के मध्य जाकर प्रवेश किया जाता है, सभी साधु-साध्वियों का ग्रहण हो जाता है। जहां पृथक उच्चार-कायिकी भूमी हो, जो कपाट आदि से गुप्त २६७८.खामिय वितोसिय विणासियं च झवियं च होति एगट्ठा। हो वहां रहने पर प्रायश्चित्त नहीं आता। शाला में रहना पड़े तो पाहुड पहेण पणयण, एगट्ठा ते उ निरयस्स। वह दुर्जनों से रहित होनी चाहिए तथा जहां सागारिक के क्षामित, व्यवशमित, विनाशित और क्षपित-ये एकार्थक बालक रह रहे हों वहां रहा जा सकता है। इसी प्रकार हैं। प्राभत. प्रहेनक, प्रणयन-ये तीनों शब्द नरक के चतुःशाला आदि गृहमध्य में तथा छिडिका में जहां अपने एकार्थवाची हैं। निजक-संबंधीजन, श्रावक अथवा सज्जन व्यक्ति रह रहे हों २६७९.इच्छा न जिणादेसो, आढा उण आदरो जहा पुव्विं। वहां रहा जा सकता है। भुंजण वास मणुन्ने, सेस मणुन्ने व इतरे वा॥ इच्छा शब्द जिनादेश नहीं है। आढाई आदि पद भी विओसवण-पदं स्वच्छंद से कहे गए हैं। 'आढा' का अर्थ है-आदर। वह पूर्ववत् करना होता है। संभोजन और संवासन-ये दो पद भिक्खू य अहिगरणं कट्ट तं अहिगरणं मनोज्ञ अर्थात् सांभोगिक के विषय से संबद्ध हैं। शेष पद 'विओसवित्ता विओसवियपाहुडे', इच्छाए मनोज्ञ-अमनोज्ञ-दोनों से संबंधित हैं। परो आढाएज्जा इच्छाए परो नो २६८०.नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहं तु अहिगरणं। आढाएज्जा, इच्छाए परो अब्भुटेज्जा दव्वम्मि जंतमादी, भावे उदओ कसायाणं ।। इच्छाए परो नो अब्भुटेज्जा, इच्छाए परो अधिकरण के चार प्रकार हैं-नामअधिकरण, स्थापनावंदिज्जा इच्छाए परो नो वंदिज्जा, इच्छाए अधिकरण, द्रव्यअधिकरण और भावअधिकरण। द्रव्यपरो संभुजेज्जा इच्छाए परो नो अधिकरण है-यंत्र आदि और भाव अधिकरण है-क्रोध आदि कषायों का उदय। संभुजेज्जा, इच्छाए परो संवसेज्जा २६८१.दव्वम्मि उ अहिगरणं, चउब्विहं होइ आणुपुव्वीए। इच्छाए परो नो संवसेज्जा, इच्छाए परो निव्वत्तण निक्खिवणे, संजोयण निसिरणे य तहा।। उवसमेज्जा इच्छाए परो नो उवसमेज्जा। द्रव्य विषयक अधिकरण क्रमशः चार प्रकार का होता जो उवसमइ, तस्स अत्थि आराहणा; जो है-निर्वर्तनाधिकरण, निक्षेपणाधिकरण, संयोजनाधिकरण' न उवसमइ, तस्स नत्थि आराहणा। तम्हा और निसर्जनाधिकरण।२ १. दृष्टांत के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ७६। २. वृत्तिकार ने इनकी विस्तृत व्याख्या की है तथा कुछेक ऐतिहासिक तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। (वृ. पृ. ७५३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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