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२६६३. जर कुणी गायंति विस्सरं साइयाउ मुसलेहिं । विलवंतीसु सकलुणं, हयहियय ! किमाकुलीभवसि ॥ यदि कुट्टनियां धान्य को कूटती हुई गीत गाती है तो साधुओं को सोचना चाहिए कि यदि ये कुट्टनियां मुसलों को ऊंचा -नीचा फेंकती हुई उससे होने वाले श्रम को दूर करने के लिए ये विस्वर में गाती हैं। वास्तव में सकरुण विलाप करती हुई इनके गीतों को सुनकर हे हतहृदयशिष्य ! तुम क्यों आकुल व्याकुल हो रहे हो ।
२६६४. मज्झे जग्गंति सया, निंति ससद्दा य आउला रत्तिं ।
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फिडिए य जयण सारण, एहेहि इओ इमं दारं ॥ जहां मुनि गृहमध्य में रहते हैं वहां वृषभ मुनि सारी रात जागते रहते हैं। मुनि कायिकी - व्युत्सर्ग के लिए बाहर जाते हुए शब्द करते हैं और शीघ्र ही लौट आते हैं। कोई मुनि बाहर मार्गच्युत हो जाता है या अपने निवासस्थान को भूल जाते है तो यतनापूर्वक उसकी सारणा करते हुए कहना चाहिए इधर आ जाओ यह रहा द्वार २६६५. अविजाणतो पविट्ठो, भणइ पविट्ठो अजाणमाणो मि एहामि वए ठविडं न पवत्तइ अत्थि मे इच्छा ॥ यदि कोई मुनि अजानकारी के कारण दूसरे अपवरक में प्रवेश कर जाता है, वहां कोई पूछने पर कड़े में अजानकारी के कारण यहां प्रविष्ट हुआ हूं। यदि स्त्री उसको अपने साथ भोग भोगने के लिए आग्रह करे तो उसे कहे देखो, जिन गुरुओं के पास मैंने व्रत ग्रहण किए हैं, उनके पास व्रतों को स्थापित कर आऊंगा। मेरी भी तुम्हारे प्रति इच्छा है। गुरु के पास व्रतों को स्थापित किए बिना वैसा करना युक्त नहीं है। इस प्रकार कह कर वहां से निर्गमन कर देना चाहिए।
२६६६. कडओ व चिलिमिली वा, मज्जतिसु थेरगा य तत्तो उ। आइन्नहिरन्नेसु य थेर च्चिय सिक्खगा दूरे ॥ शय्यातर या उसकी स्त्री स्नान आदि करती हो तो अंतराल में चटाई या चिलिमिलिका का परदा लगाना चाहिए। वहां स्थविर मुनियों को स्थापित करना चाहिए। जहां हिरण्य आदि बिखरे हुए हों वहां भी स्थविर ही बैठे रहें । शिक्षकों (शैक्षों) को वहां से दूर रखें।
२६६७. दारमसुखं काउं, निंति अती ठिया उ छिंडीए
काइयजयणा स च्चिय, वगडासुत्तम्मि जा भणिया ॥ छिंटिका में रहते उसको संपूर्ण खाली न कर बाहर आते-जाते हैं। कायिकी की यतना तो पूर्ववत् ही है जो वगडा सूत्र (२२७२-२२७७) आदि के प्रकरण में कही गई है।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
कप्पइ निग्गंथीणं गाहावइकुलस्स मज्झमज्झेणं गंतुं वत्थए ।
(सूत्र ३३)
२६६८. एसेव कमो नियमा, निग्गंधीणं पि नवरि चउलहुगा । नवरं पुण नाणतं, सालाए छिंडि मन्झे ।। श्रमणियों के लिए भी यही नियमतः क्रम है। विशेष इतना ही है कि वहां रहने वाली श्रमणियों को चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है। शाला, छिंडिका तथा गृहमध्य इनमें नानात्व है।
२६६९. सालाए कम्मकरा, उहुंचय गीयए य ओहसणा । घर खामणं च वाणं, बहुसो गमणं च संबंधो ॥ शाला में कर्मकर इस प्रकार उहुंचक- उपहास करते - यह जैसी आर्थिका है वैसी ही मेरी मृत पत्नी थी, आदि । वे गीत गाते हुए भी विविध प्रकार के प्रपंच करते हैं, उपहसन करते हैं। जब वे श्रमणियां घरों में भिक्षार्थ जाती हैं तब वे क्षमायाचना करते हैं, दान देते हैं। फिर वे अनेक बार उन श्रमणियों के पास जाते हैं। इस प्रकार उनका परस्पर संबंध हो जाता है।
२६७०. पाणसमा तुज्झ मया, इमा य सरिसी सरिव्वया तीसे ।
संखे खीरनिसेओ, जुज्जद तत्तेण तत्तं च ॥ २६७१. सो तत्थ तीए अन्नाहि वा वि निब्भत्थिओ ओ गेहं ।
खामितो किल सुढिओ अक्खुन्नइ अग्गहत्थेहिं ॥ २६७२. पाए चेडरूवे, पाडेत्तू भणइ एस भे माता ।
जं इच्छइ तं दिज्जह, तुमं पि साइज्ज जायाई ॥ श्रमणियां शाला में स्थित हैं। दो मित्र आते हैं। एक की पत्नी का सद्यः देहावसान हो गया है। मित्र उसका उपहास करते हुए कहता है-मित्र प्राणसमा तेरी पत्नी का देहान्त हो गया। यह श्रमणी उसके सदृश है, समानवयवाली है। यदि इसके साथ तुम्हारा संबंध हो जाए तो शंख में दूध का अभिषेक तथा तम लोहे के साथ दूसरे लोह का संश्लेष जैसा होगा। यह सुनकर उस श्रमणी तथा अन्य श्रमणियों से वह अत्यंत निर्भर्त्सित होता है, घर चला जाता है। एक दिन वही श्रमणी भिक्षा के लिए घूमती हुई उसी के घर चली जाती है। वह तब वंदना करता हुआ क्षमायाचना करता है, अत्यंत आदर दिखाता है और हाथों को लंबा कर श्रमणीजी के चरणों में चित्रलिखित की भांति प्रदर्शित करता है। वह अपनी संतानों को श्रमणीजी के चरणों में गिरा कर कहता है-'यह तुम सबकी माता है। यह भिक्षा में जो चाहे वह दो और श्रमणी को कहना है ये सब आपके ही बच्चे हैं। इनका पालन-पोषण करो।' इस
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