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पहला उद्देशक
= २६९ गई है और बाद में मुनि गया है वहां आत्मसमुत्थ और कुछ अपहरण कर ले जाते हैं। ये सारे दोष शाला आदि में परसमुत्थ-दोनों प्रकार के दोष होते हैं। और यदि वहीं रहने से होते हैं। पुरोहड में ही उपाश्रय हो तो स्त्रियों के कायिकी का निरोध २६५८.अद्धाणनिग्गयाई, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। होता है। तरुण मुनियों के स्वाध्याय में व्याघात होता है। सालाए मज्झे छिंडी, वसंति जयणाए गीयत्था।। क्योंकि स्त्रियों के आने-जाने से उनकी दृष्टि उस ओर चली ___ अध्वनिर्गत मुनि तीन बार शुद्ध वसति की मार्गणा करे। जाती है। शासन का उड्डाह भी होता है।
उसके प्राप्त न होने पर गीतार्थ मुनि पहले शाला में रहे, २६५५.छिंडीए अवंगुयाए, उब्भामग-तेणगाण अइगमणं। उसके न मिलने पर गृहमध्य में, उसके अभाव में छिंडिका में
वसहीए वोच्छेदो, उवगरणं राउले दोसा॥ यतनापूर्वक रहें। छिंडिका रात्री में अपावृत रहने पर उद्भ्रामक लोग तथा २६५९.बोलेण झायकरणं, तहा वि गहिएऽणुसट्ठिमाईणि। चोर उसमें प्रवेश कर जाते हैं। वे कुछ अपहरण कर लेते हैं
वेउब्वि खद्धऽवाउडि, छिड्डा चोले य पडले य॥ अथवा अगारी की प्रतिसेवना करते हैं तो शय्यातर वसति शाला में यह यतना है-सभी मुनि एकत्रित होकर का व्यवच्छेद कर देता है। चोर वस्त्रों को चुरा ले जाता है स्वाध्याय करे, फिर भी वहां स्थित गृहस्थ उनके पदों को तो शय्यातर राजकुल में शिकायत करता है। उससे अनेक सुनकर ग्रहण करते हैं तो उनको समझाने का प्रयत्न करे, दोष होते हैं।
उन्हें कहे-गुरुगम के बिना पदों को ग्रहण करना हानिकारक २६५६.किं नागओ सि समणेहिं ढक्कियं दोस कूयरा जं तु। होता है। किसी मुनि का सागारिक (लिंग) बहुत बड़ा
एतेहऽवंगुएण व, अज्ज पइट्ठो सइरचारी॥ हो, विंटकविद्ध हो, ऊपर की त्वचा रहित हो तो वह (शय्यातर की लड़की उद्भ्रामक से संप्रलग्न है। उसे चोलपट्ट की पटली के एक पटल में छिद्र कर सागारिक को रात्री में आने का संकेत दिया हुआ है। दूसरे दिन उसके ढंक दे। आने पर वह पूछती है-) कल रात क्यों नहीं आए? वह २६६०.अहागदोससंकी, जा पढमा ताव पाउया णिति। कहता है-मैं आया था परंतु श्रमणों ने छिंडिका का द्वार
उट्ठण-निवेसणेसु य, तत्तो पढेि न कुव्वंति। ढक दिया था। तदनन्तर वे कुचर-उद्भ्रामक और मुनि प्रथम प्रहर में बाहर जाएं तो प्रावृत होकर ही उद्भामिका, जो कुछ प्रद्वेषवश उत्पीड़न करते हैं, उससे निकले। क्योंकि नग्नमुनियों को देखने वालों के मन में निष्पन्न प्रायश्चित्त मुनि को आता है। अथवा सागारिक यह अमंगल की भावना बन जाती है। वे ऊठते-बैठते हुए गृहस्थों सोचता है-श्रमणों ने द्वार खुला छोड़ दिया इसलिए आज की ओर पीठ न करें, क्योंकि उनके पुतों को देखने से स्वैरचारी स्तेन या उद्भ्रामक हमारे गृह में प्रविष्ट हो गया। अमंगल होता है, ऐसी उनकी मान्यता है। वह शय्यातर कोपाकुल होकर मुनियों को वसति से निकाल २६६१.अवणाविंतिऽवणिंति व, कप्पढे परिरयस्स असईए। देता है।
अप्पत्ते सइकाले, बाहि वियदृति निग्गंतुं॥ २६५७.अवहारे चउभंगो, पसंग एएहिं संपदिन्नं तु। मुनि बालकों के मार्ग को छोड़कर परिरय-मार्गान्तर से
संजयलक्खेण परे, हरिज्ज तेणा दिय निसिं वा॥ गमन करे। यदि मार्गान्तर न हो तो, शय्यातर आदि को अपहार की चतुर्भंगी होती है
कहकर मार्ग से उन बालकों को हटवाए या स्वयं उन बालकों (१) कुछेक चोर संयतों के उपकरण आदि का अपहरण को हटाए। मुनि गृहस्थों की भोजन वेला में भिक्षाकाल अप्रास करते हैं, गृहस्थों के नहीं।
होने पर ही जाता है, और खड़ा रहकर भिक्षावेला की प्रतीक्षा (२) कुछ गृहस्थों के, संयतों के नहीं।
करता है। (३) कुछ दोनों के।
२६६२.नीउच्चा उच्चतरी, चिलिमिलि भुजंत सेसए भयणा। (४) कुछ दोनों के नहीं।
पुढवी-दगाइएसुं, सारण जयणाए कायव्वा॥ गृहस्थों का कुछ भी चोरी हो जाने पर वे कहते हैं-इन जहां गृहस्थ संलग्न हों वहां मुनि आहार आदि करते समय श्रमणों ने द्वार को खुला रख दिया इसलिए इन्होंने स्तेनों को तीन चिलिमिलिका बांधे-एक से दूसरी ऊंची और तीसरी स्वर्ण आदि दिया है। यह सोचकर वे गृहस्थ राजकुल में सबसे ऊंची। यदि कुछेक मुनि अभक्तार्थी हों तो चिलिमिलि की शिकायत कर मुनियों के ग्रहण-आकर्षण का प्रसंग पैदा भजना है। जहां पृथ्वी, पानी आदि की विराधना संभावित हो करते हैं। कुछेक चोर संयत के वेश मिष से आकर रात्री में वहां गृहस्थों को यतनापूर्वक अनुशिष्टि दे।
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