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आगमणं सज्जंगमणागमणं करेत्तए।
जो खलु निग्गंथो वा निग्गंथी वा वेरज्ज-विरुद्धरज्जंसि सज्जं गमणं सज्जं आगमणं सज्जं गमणागमणं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ, से दुहओ 'वि अइक्कममाणे' आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अणुग्घाइयं॥
(सूत्र ३७)
२७५९.चारो त्ति अइपसंगा, विरुद्धरज्जे वि मा चरिज्जाहि। __ इय एसो उवधाओ, वेरज्जविरुद्धसुत्तस्स॥
हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु में विहरण करना कल्पता है, ऐसे कहना अतिप्रसंग हो जायेगा। प्रस्तुत सूत्र में कहा गया है कि विरुद्धराज्य में विहरण नहीं करना चाहिए इस अभिप्राय से यह सूत्र प्रारंभ किया जाता है। यह विरुद्धराज्यसूत्र का उपोद्घात है, संबंध है। २७६०.वेरं जत्थ उ रज्जे, वेरं जायं व वेररज्जं वा।
जं च विरज्जइ रज्ज, रज्जेणं विगयरायं वा॥ जिस राज्य के साथ परंपरागत वैर है, वह वैराज्य कहलाता है। अथवा दो राज्यों के मध्य जो वैर हो गया है, वह वैराज्य है। अथवा परकीय राज्य से जो विरोध में प्रसन्न रहता है, वह वैराज्य है। अथवा जो विवक्षित राजा के साथ विरोध रखता है, वह वैराज्य है। अथवा जहां का राजा मर गया हो, जहां कोई राजा न हो, वह वैराज्य है। जहां दो राज्यों के मध्य गमनागमन विरुद्ध हो, वह विरुद्धराज्य कहलाता है। २७६१.सज्जग्गहणा तीय, अणागयं चेव वारियं वरं।
पन्नवग पडुच्च गयं, होज्जाऽऽगमणं व उभयं वा॥ जहां सद्य अथवा वर्तमानकालभावी वैर हो, वहां गमनागमन नहीं कल्पता। इससे अतीत और अनागत वैर वाले क्षेत्र में भी गमनादिक निवारित हो जाता है। प्रज्ञापक (गुरु) की अपेक्षा 'गत' अर्थात् गमन या आगमन तथा दोनोंगमनागमन होता है। (जहां प्रज्ञापक हो वहां से अन्यत्र जाना गमन और दूसरे स्थान से प्रज्ञापक के पास आना आगमन है। जाकर लौट आना गमनागमन कहलाता है।) २७६२.नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य भाववेरे या
तं महिस-वसभ-वग्धा-सीहा नरएसु सिज्झणया॥ वैर शब्द के छह निक्षेप हैं-नामवैर, स्थापनावैर, द्रव्यवैर, क्षेत्रवैर, कालवैर और भाववैर। भाववैर संबंधी यह दृष्टांत १. दृष्टान्त के लिए देखें-कथा परिशिष्ट, नं. ७९।
=बृहत्कल्पभाष्यम् है-महिष-वृषभ-व्याघ्र-सिंह-मनुष्य-सिद्धगति को प्राप्त हो गए। २७६३.अणराए जुवराए, तत्तो वेरज्जए अ बेरज्जे।
एत्तो एक्किक्कम्मि उ, चाउम्मासा भवे गुरुगा। इसी प्रकार अराजक, यौवराज्य, वैराज्य और द्वैराज्यइन चारों में गमनागमन करने से, प्रत्येक में चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त विहित है। (पहले में तप और काल से गुरु, दूसरे में कालगुरु, तीसरे में तपोगुरु और चौथे में दोनों से गुरु।) २७६४.अणरायं निवमरणे, जुवराया जाव दोच्च णऽभिसित्तो।
वेरज्जं तु परबलं, दाइयकलहो उ बेरज्जं॥ राजा के मर जाने पर जब तक दूसरे राजा तथा युवराजा का अभिषेक नहीं होता तब तक वह राज्य 'अराजक' कहलाता है। जब तक पूर्व युवराजा अपने दूसरे युवराजा का अभिषेक नहीं करता, तब तक वह राज्य 'यौवराज्य' कहलाता है। जिस राज्य में शत्रुराजा आकर उपद्रव मचाता है वह 'वैराज्य' कहलाता है। एक ही राज्य के दो दायक हों और वे परस्पर कलह कर रहे हों, वह द्वैराज्य कहलाता है। २७६५.अविरुद्धा वाणियगा, गमणाऽऽगमणंच होइ अविरुद्धं।
निस्संचार विरुद्धे, न कप्पए बंधणाईया।। जिस राज्य में वणिकों का गमनागमन अविरुद्ध है, वहां मुनियों का भी गमनागमन अविरुद्ध है। जहां वणिकों का संचरण निषिद्ध है, उस विरुद्ध राज्य में मुनियों को संचरण नहीं कल्पता। वहां जाने से बंधन आदि दोष होते हैं। २७६६.अत्ताण चोर मेया, वग्गुर सोणिय पलाइणो पहिया।
पडिचरगा य सहाया, गमणागमणम्मि नायव्वा॥ कितने प्रकार से वहां जाया जाता है, वह इस श्लोक में निर्दिष्ट है-आत्मना (स्वयं) या अत्राण-जो कार्पटिक आदि देशान्तर जाते हैं, उनके साथ जाना। इसी प्रकार चौरों के साथ, मेद-म्लेच्छविशेषों के साथ, वागुरिकशौनिक-इनके साथ, पलायन करने वाले भटों के साथ, पथिकप्रतिचरक (गुप्तचर)-ये आठ प्रकार के व्यक्ति वैराज्य में गमनागमन करने में मुनियों के सहायक होते हैं। २७६७.अत्ताणमाइएसुं, दिय पह दिढे य अट्ठिया भयणा।
एत्तो एगयरेणं, गमणागमणम्मि आणाई।। आत्मा (स्वयं) या अत्राण आदि पदों में प्रत्येक सहायक में दिवा-पथ-दृष्टपदों से सप्रतिपक्ष से आठ प्रकार से भजना होती है-आठ-आठ विकल्प होते हैं। इन आठ भेदों के, प्रत्येक के आठ-आठ प्रकार होते हैं। इनमें से किसी भी
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