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________________ पहला उद्देशक प्रकार से जो गमनागमन करता है उसके आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। (आठ भंग ये हैं१. बिना किसी सहायक के आत्मना-स्वयं दिन में, मार्ग से, राजपुरुषों द्वारा दृष्ट, जाते हैं। २. आत्मना दिन में मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। ३. आत्मना दिन में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा दृष्ट। ४. आत्मना दिन में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। ५. आत्मना रात्री में मार्ग से राजपुरुषों द्वारा दृष्ट। ६. आत्मना रात्रि में मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। ७. आत्मना रात्री में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा दृष्ट। ८. आत्मना रात्री में उन्मार्ग से राजपुरुषों द्वारा अदृष्ट। इसी प्रकार चौर आदि के साथ प्रतिचरकान्त तकप्रत्येक के आठ-आठ भंग होते हैं।) २७६८.अत्ताणमाइएसुं, दिय-पह-दिवेसु चलउहू होति। राओ अपह अदिढे, चउगुरुगाऽइक्कमे मूलं॥ आत्मा या अत्राण आदि पदों में दिवा, पथ दृष्ट-इनमें तथा इनके प्रतिपक्ष में गमनागमन करने से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। जो रात्री विषयक चार भंग हैं, उनमें अपथ और अदृष्ट पदों में चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। अतिक्रम करने पर मूल का प्रायश्चित्त है। २७६९.अत्ताणमाइयाणं, अट्ठण्हऽट्ठहि पएहिं भइयाणं। चउसट्ठिए पयाणं, विराहणा होइमा दुविहा॥ आत्मा या अत्राण आदि आठ पदों को आठ भंगों के साथ भक्त करने पर, गुणित करने पर चौंसठ पद होते हैं। इन चौसठ पदों में से किसी भी पद या भंग में गमनागमन करने पर दोनों प्रकार की विराधना-आत्मविराधना और संयमविराधना होती है। २७७०.छक्काय गहणकङ्कण, पंथं भित्तूण चेव अइगमणं। सुन्नम्मि य अइगमणे, विराहणा दुण्ह वग्गाणं॥ षट्काय की विराधना होती है-यह संयमविराधना है। राजपुरुषों द्वारा ग्रहण और आकर्षण होने पर यह आत्म- विराधना है। वे मुनि यदि मार्ग को छोड़कर, उत्पथ से परजनपद में प्रवेश करते हैं तो अत्यधिक अपराधी माने जाते हैं। शून्य अर्थात् स्थानपालविरहित मार्ग से अतिगमन-प्रवेश करते हैं तो मुनियों तथा सहायकों-दोनों की विराधना मानी जाती है, दोनों अपराधी होते हैं। २७७१.छक्काय चउसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे। संघट्टण परितावण, लहु गुरुगऽइवायणे मूलं॥ छह कायों में से चार काय-पृथ्वी, अप, तेजो और वायु २८१ तथा परित्त वनस्पतिकाय का संघट्टन होने पर लघुमास, साहार-अनन्तवनस्पति काय के संघट्टन में गुरु, द्वीन्द्रिय आदि के संघट्टन में लघु और परितापन में गुरु और इनका अतिपात होने पर मूल। २७७२.संजय-गिहि-तदुभयभहया य तह तदुभयस्स वि य पंता। चउभंगो गोम्मिएहिं, संजयभद्दा विसज्जेंति॥ गोल्मिक (स्थानपालक) द्वारा निर्दिष्ट मार्ग-रक्षक। उनकी चतुर्भंगी इस प्रकार है १. संयतभद्रक गृहस्थप्रान्त। २. गृहस्थभद्रक संयतप्रान्त। ३. दोनों के प्रति भद्रक। ४. दोनों के प्रति भद्रक नहीं। जो गोल्मिक संयतभद्रक होते हैं (प्रथम, तृतीय भंगवर्ती) वे साधुओं का निरोध नहीं करते। २७७३.संजयभद्दगमुक्के, बीया घेत्तुं गिही वि गिण्हति। जे पुण संजयपंता, गिण्हंति जई गिही मुत्तुं॥ संयतभद्रक गोल्मिकों द्वारा मुक्त साधुओं को द्वितीय भंगवर्ती संयतप्रान्त गोल्मिक उनको पकड़ लेते हैं। तथा उनके साथ वाले गृहस्थों को भी पकड़ लेते हैं। जो गोल्मिक संयतों के प्रति प्रद्विष्ट होते हैं, वे संयतों का ग्रहण कर लेते हैं और साथ वाले गृहस्थों को मुक्त कर देते हैं। २७७४.पढम-तइयमुक्काणं, रज्जे दिवाण दोण्ह वि विणासो। पररज्जपवेसेवं, जओ वि णिती तहिं पेवं॥ प्रथम और तृतीय भंगवर्ती स्थानपालकों द्वारा मुक्त साधु यदि परराज्य में प्रविष्ट होते हैं और राजपुरुष उन्हें देख लेते हैं तो दोनों संयतों और स्थानपालकों का विनाश होता है। परराज्य में प्रवेश के ये दोष कहे गए हैं। तथा जिस राज्य से निर्गमन करते हैं वहां भी ये ही दोष होते हैं। २७७५.रक्खिज्जइ वा पंथो, जइ तं भित्तूण जणवयमइंति। गाढतरं अवराहो, सुत्ते सुन्ने व दोण्हं पि॥ जिस मार्ग की स्थानपालक रक्षा करते हैं, उस मार्ग को छोड़कर जो मुनि उत्पथ से परराज्य के जनपद में प्रवेश करता है तो यह गाढ़तर-महान् अपराध माना जाता है। यह केवल साधु का अपराध है। यदि स्थानपालक सोए हुए हों या वह स्थान सूना हो और साधु यदि जाते हैं तो साधु और स्थानपालक-दोनों का अपराध माना जाता है। २७७६.गण्हणे गुरुगा छम्मास कड्ढणे छेओ होइ ववहारे। पच्छाकडे य मूलं, उड्डहण विरुंगणे नवमं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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