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३१२ ३०६६.राग होसविमुक्को, सत्थं पडिलेहे सो उ पंचविहो।
भंडी बहिलग भरवह, ओदरिया कप्पडिय सत्थो॥ जिस सार्थ का गंतव्य के प्रति न राग है और न द्वेष, ऐसे सार्थ की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। सार्थ के पांच प्रकार' हैं-भंडीसार्थ, बहिलक सार्थ, भारवाहसार्थ, औदरिकसार्थ, कार्पटिकसार्थ। ३०६७.गंतव्वदेसरागी, असत्थ सत्थं पि कुणति जे दोसा।
इअरो सत्थमसत्थं, करेइ अच्छंति जे दोसा॥ जिसका गंतव्य देश के प्रति राग होता है वह असार्थ को भी सार्थ बना देता है, वहां जो दोष होते हैं, उनसे निष्पन्न प्रायश्चित्त आचार्य को आता है। जिसका गंतव्य देश के प्रति द्वेष होता है वह सार्थ को भी असार्थ कर डालता है। वहां जो दोष होते हैं, उनके भी भागी वे ही होते हैं। ३०६८.उप्परिवाडी गुरुगा, तिसु कंजियमादिसंभवो होज्जा।
परिवहणं दोसु भवे, बालादी सल्ल गेलन्ने॥ यदि उत्परिपाटी-यथोक्तक्रम का उल्लंघन कर सार्थ के साथ जाने से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रथम तीन सार्थों में कांजिक आदि मानक उपलब्ध हो सकता है। तथा प्रथम दो सार्थों में शल्यविद्ध बाल-वृद्ध तथा ग्लान मुनियों का परिवहन हो सकता है। ३०६९.सत्थं च सत्थवाहं , सत्थविहाणं च आदियत्तं च।
दव्वं खेत्तं कालं, भावोमाणं च पडिलेहे॥ सार्थ, सार्थवाह, सार्थ का विधान, आतियात्रिक-सार्थ के रक्षक, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव तथा अवमान-इन द्रव्यों से संबंधित सार्थ की प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। (यह द्वार गाथा है। व्याख्या आगे) ३०७०.सत्थि त्ति पंच भेया, सत्थाहा अट्ठ आइयत्तीया।
सत्थस्स विहाणं पुण, गणिमाई चउब्विहं होइ॥ सार्थ शब्द से पांच प्रकार के सार्थ गृहीत हैं। सार्थवाह और आतियात्रिक सार्थरक्षक आठ-आठ प्रकार के हैं। सार्थ का विधान गणिम आदि के भेद से चार प्रकार का होता है। ३०७१.अणुरंगाई जाणे, गुंठाई वाहणे अणुण्णवणा।
धम्मु त्ति वा भईय व, बालादि अणिच्छे पडिकुट्ठा॥ अनुरंग आदि यान, गुंठ घोटक अथवा महिष आदि वाहन कहलाते हैं। इन यान, वाहनों की अनुज्ञापना करनी चाहिए।
=बृहत्कल्पभाष्यम् ऐसे सार्थों को कहना चाहिए, हमारे बाल या वृद्ध मुनियों को आवश्यकतावश यान-वाहन में चढ़ाना होगा। यदि सार्थ धर्म मानकर स्वीकार करते हैं तो अच्छा है, अन्यथा मूल्य देकर यान-वाहन में चढ़ाने की बात करनी चाहिए। यदि वे ऐसा करना नहीं चाहते हों तो वे सार्थ प्रतिषिद्ध हैं, उनके साथ नहीं जाना चाहिए। ३०७२.दंतिक्क-गोर-तिल्ल-गुल-सप्पिएमादिभंडभरिएसु ।
अंतरवाघातम्मि व, तं दितिहरा उ किं देति॥ दंतिक-दन्त्यखाद्य, गोर-गेंहूं, तैल, गुड़, सर्पि-घी, इन द्रव्यों से भरे हुए भांड वाले सार्थ द्रव्यतः शुद्ध होते हैं। बीच में व्याघात हो जाने पर भी दंतिक आदि खाद्य स्वयं सार्थ खाते हैं और साधुओं को भी देते हैं। उनके अभाव में वे क्या खाये और क्या हैं? ३०७३.वासेण नदीपूरेण वा वि तेणभय हत्थि रोधे य।
खोभे व जत्थ गम्मति, असिवं वेमादि वाघाता॥ व्याघात होने के कारण-अत्यधिक वर्षा, नदी का पूर, स्तेनों का भय, हाथी का भय, जिस गांव में जाना चाहते हैं वहां रोध-शत्रु राजा ने आक्रमण कर दिया हो, राज्यक्षोभ हो गया हो, अशिव हो इस प्रकार के व्याघात होते हैं। ३०७४.कुंकुम अगुरुं पत्तं, चोयं कत्थूरिया य हिंगुं च।
संखग-लोणभरितेण, न तेण सत्थेण गंतव्वं ॥ कुंकुम, अगुरु, तगरपत्र, त्वक्-छाल, कस्तूरिका, हिंगुल, शंख, लवण आदि द्रव्यों से भरे हुए भांड हों, वैसे सार्थों के साथ न जाएं, क्योंकि व्याघात होने पर वे भोज्यरूप में क्या दे सकते हैं? ३०७५.खेत्ते जं बालादी, अपरिस्संता वयंति अद्धाणं।
काले जो पुव्वण्हे, भावे सपक्खादणोमाणं॥ बाल-वृद्ध मुनि सुखपूर्वक बिना थकावट अनुभव किए विहरण कर सकते हैं, उतनी दूरी तक जाने वाला सार्थ क्षेत्रतः शुद्ध होता है। जो सार्थ पूर्वाह्न में ठहर जाता है वह कालतः शुद्ध और जो सार्थ स्वपक्ष-परपक्ष के भिक्षुओं को पर्याप्त भिक्षा देता है वह भावतः शुद्ध होता है। ३०७६.एक्किक्को सो दुविहो, सुद्धो ओमाणपेल्लितो चेव।
मिच्छत्तपरिग्गहितो, गमणाऽऽदियणे य ठाणे अ॥ भंडीसार्थ और बहिलकसार्थ इन दोनों में प्रत्येक के दो
१. (१) भंडी सार्थ-गाड़ियों से चलने वाला।
(२) बहिलकसार्थ-ऊंट, बैल आदि से चलने वाला। (३) भारवाहसार्थ-भार ढोने बालों का। (४) औदारिकसार्थ-रुपये देकर मार्ग में भोजन करने वालों का। (५) कार्पटिकसार्थ-भिक्षा से निर्वाह करने वालों का।
२. गणिम-गिनकर दी जाने वाली वस्तुएं।
धरिम-तोल कर दी जाने वाली वस्तुएं। मेय-माप कर दिए जाने वाले पदार्थ। परिच्छेद्य-आंखों से परीक्ष्य पदार्थ, जैसे-रत्न, मोती आदि।
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