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पहला उद्देशक
अध्वगत स्थिति में छह कायों की विराधना होती है। स्तेनों के भय में दंडक और चिलिमिलिका के बिना, अध्वप्रायोग्य उपकरण नंदी भाजन आदि के भार से वेदना उदककार्य में चर्मकरक आदि के बिना, रात्री में शीघ्रगमन होती है। बाल-वृद्ध तथा शैक्ष पहले अथवा द्वितीय परीषह से तथा दूरगमन में तलिका के बिना, बाल-वृद्ध को वहन करने परितप्त होते हैं। मुनियों के लिए श्वापद, स्तेन तथा म्लेच्छ के लिए कापोतिका के बिना, बाल-वृद्ध आदि शल्यविद्ध होने उपद्रव उपस्थित करते हैं।
पर शस्त्रकोश के बिना इन उपकरणों के बिना अनेक दोष ३०५७.उवगरणगेण्हणे भार वेदणा तेण गम्मि अहिगरणं। होते हैं।
रीयादि अणुवओगो, गोम्मिय भरवाह उड्डाहो॥ ३०६१.बिइयपय गम्ममाणे, मग्गे असतीय पंथे जतणाए। अध्वप्रायोग्य उपकरणों को लेकर विहार करने पर उनके
परिपुच्छिऊण गमणं, अछिण्णे पल्लीहिं वइगाहिं।। भार से वेदना होती है। अति उपकरण होने पर चोर तथा द्वितीयपद अर्थात् अपवाद पद में अध्वगत होने पर सबसे गौल्मिक (मार्गरक्षक) उन्हें लूटते हैं, सताते हैं। उन पहले मार्ग से, उसके अभाव में पथ से यतनापूर्वक जाना अतिरिक्त उपकरणों का परिभोग करने पर अधिकरण होता चाहिए। उसमें लोगों को पूछकर पल्ली, वजिका आदि से है। भाराक्रान्त मुनियों द्वारा ईर्या में अनुपयोग होता है। अछिन्न पथ से गमन किया जा सकता है। गौल्मिक उपद्रव करते हैं। ये साधु भारवाही हैं-इस प्रकार ३०६२.असिवे ओमोदरिए, रायडुढे भये व आगाढे। उड्डाह-अवहेलना होती है।
गेलन्न उत्तिमद्वे, णाणे तह दंसण चरित्ते॥ ३०५८.चम्मकरग सत्थादी,
अशिव, अवमौदर्य, राजद्विष्ट, भय उत्पन्न हो जाने पर, दुलिंग कप्पे अ चिलिमिणिअगहणे। आगाढ़ कारण से, ग्लान के लिए, उत्तमार्थ-संथारा आदि के तस विपरिणमुड्डाहो,
लिए, ज्ञान-दर्शन और चारित्र के लिए-इन कारणों से कंदाइवधो य कुच्छा य॥ देशान्तर जाया जा सकता है, विहार किया जा सकता है। विहरण करते समय मुनि यदि चर्मकरक नहीं लेते हैं तो ३०६३.एएहिं कारणेहिं, आगाढेहिं तु गम्ममाणेहिं। वस जीवों की विराधना होती है। शस्त्रकोश न लेने पर शैक्ष
उवगरण पुव्वपडिलेहिएण सत्थेण गंतव्वं॥ विपरिणत हो सकते हैं। दुलिंग अर्थात् गृहस्थ के कपड़े तथा ये कारण जब आगाढ़रूप में प्राप्त होते हैं तब अध्वअन्यतीर्थिक का वेश साथ में न रहने पर प्रसंग पर उड्डाह हो प्रायोग्य उपकरण लेकर, पूर्व प्रत्युपेक्षित सार्थ के साथ जाना सकता है। अध्वकल्प के बिना कन्द आदि का वध होता है, चाहिए। चिलिमिलि के बिना मंडली में साधुओं को एकत्रित भोजन ३०६४.असिवे अगम्ममाणे, गुरुगा नियमा विराहणा दुविहा। करते देखकर लोग कुत्सा-जुगुप्सा करते हैं। (श्लोक के
तम्हा खलु गंतव्वं, विहिणा जो वन्निओ हिट्ठा। पूर्वार्द्ध के साथ उत्तरार्द्ध का संबंध।)
अशिव उत्पन्न होने पर यदि गमन नहीं किया जाता तो ३०५९.अप्परिणामगमरणं अइपरिणामा य होति नित्थक्का।। चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। वहां रहने पर नियमतः
निग्गय गहणे चोइय, भणंति तइया कहं कप्पे॥ दो प्रकार की आत्म तथा संयमविराधना होती है। इसलिए मार्गगत मुनियों को यदि एषणीय का लाभ न होने पर वहां से विधिपूर्वक विहार कर देना चाहिए। विधि पंचक आदि की यतना से अनेषणीय का ग्रहण भी किया ओघनियुक्ति आदि में वर्णित है।' जाता है। अपरिणामक शिष्य उस अनेषणीय का ग्रहण नहीं ३०६५.उवगरण पुव्वभणियं, अप्पडिलेहिंते चउगुरू आणा। करता है तो मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। अतिपरिणामक
ओमाण पंत सत्थिय, अतियत्तिय अप्पपत्थयणो॥ शिष्य अकल्पनीय को ग्रहण करते देख 'नित्थक'-निर्लज्ज अध्वगत मुनि यदि पूर्वकथित उपकरणों को साथ में नहीं हो जाता है। यदि वे अध्वनिर्गत स्थिति में अकल्प्य ग्रहण लेता तथा सार्थ की प्रत्युपेक्षा नहीं करता, वह चतुर्गुरु करते हैं और उन्हें यदि अकल्प्य ग्रहण न करने की प्रेरणा दी प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोषों का भागी होता है। जाती है तो वे कहते हैं-उस समय मार्गगत होने पर वह सार्थ अवमानित होकर उद्वेलित हो सकता है, सार्थिक कल्पनीय कैसे हो गया?
आतियात्रिक-सार्थरक्षक या सार्थचिन्तक प्रान्त हो सकते हैं, ३०६०.तेणभयोदककज्जे, रत्तिं, सिग्घगति दूरगमणे य। सार्थ अल्प शंबल वाला हो सकता है इसलिए सार्थ की
वहणावहणे दोसा, बालादी सल्लविद्धे य॥ प्रत्युपेक्षा करनी चाहिए। १. 'संवच्छरबारसएण, होही असिवं ति ते तओ निति।'......(ओघ. भा. गा. १५)
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