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पहला उद्देशक
दो भेद हैं-शुद्ध और अशुद्ध। शुद्ध वह है जो अवमानप्रेरित सार्थपंचक में भंडीसार्थ तथा बहिलकसार्थ ये दोनों शुद्ध (वस्तु के अभाव से प्रेरित) नहीं है, जो अवमानप्रेरित है वह अथवा प्रेरित हो सकते हैं। कालगामी-अकालगामी या अशुद्ध है। सार्थ का संरक्षक मिथ्यादृष्टि हो तो वह सार्थ कालभोजी-अकालभोजी या कालनिवेशी-अकालनिवेशी या मिथ्यात्वपरिगृहीत होता है। ऐसे सार्थ के साथ नहीं जाना स्थंडिलस्थायी-अस्थंडिलस्थायी-ये पांचों प्रकार के सार्थ हो चाहिए। जो सार्थ गमन में मंदगति वाला है, आदन-भोजन- सकते हैं। तथा आठ प्रकार के सार्थवाह और आठ प्रकार के वेला में तथा जो ठाण-स्थंडिल वेला में एक स्थान पर ठहर आदियांत्रिक होते हैं। जाता है, वह सार्थ शुद्ध है।
३०८२.एतेसिं तु पयाणं, भयणाए सयाई एक्कपन्नं तु। ३०७७.समणा समणि सपक्खो ,
वीसं च गमा नेया, एत्तो य सयग्गसो जयणा॥ परपक्खो लिंगिणो निहत्था य। इन पदों की भंगरचना करने पर ५१२० भंग होते हैं। आया-संजमदोसा,
एत्तो-इन भंगों में शतभेदवाली यतना होती है। असईय सपक्खवज्जेण॥ ३०८३.कालुट्ठाई कालनिवेसी, ठाणट्ठाती य कालभोगी य। श्रमण और श्रमणी स्वपक्ष हैं। लिंगी-अन्यतीर्थिक और
उम्गतऽणत्थमि थंडिल, मज्झण्ह धरंत सूरे य॥ गृहस्थ परपक्ष हैं। इनसे आकीर्ण सार्थ में पर्याप्त न मिलने पर जो सार्थ कालोत्थायी अर्थात् सूर्योदय होने पर प्रयाण आत्म-संयमदोष होते हैं। सार्थ में अनवमान न होने पर, करता है और कालनिवेशी अर्थात् सूर्यास्त होने पर ठहर स्वपक्ष को छोड़कर यदि परपक्षावमान होता है तो उस सार्थ जाता है। जो सार्थ स्थानस्थायी अर्थात् स्थंडिल के समय के साथ जाया जा सकता है।
जिका आदि में ठहरता है और जो कालभोजी-मध्याह्न ३०७८.गमणं जो जुत्तगती, वइगा-पल्लीहिं वा अछिण्णेणं। अथवा सूर्य के रहते भोजन कर लेता है।
थंडिल्लं तत्थ भवे, भिक्खग्गहणे य वसही य॥ ३०८४.एतेसिं तु पयाणं, भयणा सोलसविहा उ कायव्वा। ३०७९.आदियणे भोत्तूणं, ण चलति अवरण्हे तेण गंतव्वं ।
सत्थपणएण गुणिया, असिती भंगा तु णायव्वा।। तेण परं भयणा ऊ, ठाणे थंडिल्लठाई उ॥ ३०८५.सत्थाह अट्ठगुणिया, असीति चत्ताल छस्सता होति। उस सार्थ का गमन शुद्ध है जो युक्तगति-मंदगति वाला
ते आइयत्तिगुणिया, सत एक्कावण्ण वीसहिया॥ होता है। वह सार्थ वजिका, पल्ली आदि से अच्छिन्न पथ से इन कालोत्थायी आदि चारों पदों के १६ विकल्प करने जाता है। वहां स्थंडिल भी प्राप्त हो जाता है, भिक्षाग्रहण तथा चाहिए। इनको पांच प्रकार के सार्थ से गुणन करने पर ८० भंग वसति भी सुलभता से प्राप्त हो जाती है। जो भोजनवेला में होते हैं अनको आठ प्रकार के सार्थवाहों से गुणन करने पर ठहर कर अपराह्न में चलता है, उस सार्थ के साथ जाना (८०४८)-६४० विकल्प होते हैं। इस संख्या को आठ प्रकार चाहिए। भोजनोपरान्त गमन की भजना है। जो सार्थगमन से के आयतियों से गुणन करने पर (६४०४८)=५१२० भंग होते उपरत होकर स्थंडिलस्थायी होता है, वह शुद्ध सार्थ है। हैं। (इन विकल्पों में जो बहुतरगुण वाला सार्थ हो उसके साथ ३०८०.पुराण सावग सम्महिट्ठि अहाभद्द दाणसड्ढे य।। गमन करना चाहिए।)
अणभिग्गहिए मिच्छे, अभिग्गहे अण्णतित्थी य॥ ३०८६.दोण्ह वि चियत्त गमणं, आठ प्रकार के सार्थवाह
एगस्सऽचियत्त होति भयणा उ। (१) पश्चात्कृत (५) दानश्राद्ध
अप्पत्ताण णिमित्तं, (२)श्रावक (६) अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि
पत्ते सत्थम्मि परिसाओ। (३) सम्यग्दृष्टि (७) अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि
यदि दो सार्थाधिपति हों तो दोनों की आज्ञा लेनी चाहिए। (४) यथाभद्रक (८) अन्यतीर्थिक।
यदि दोनों की प्रीति हो तो गमन करना चाहिए। यदि एक की आदियात्रिक सार्थ आरक्षक भी इसी तरह आठ प्रकार के अप्रीति हो तो वहां गमन की भजना है। सार्थ अप्राप्त हो तो होते हैं।
स्वयं के निमित्त-शकुन से प्रस्थान कर देना चाहिए। सार्थ के ३०८१.सत्थपणए य सुद्धे,
प्राप्त हो जाने पर सार्थ के शकुन को मान्य करना चाहिए और य पेल्लिओ कालऽकालगम-भोगी। साधुओं की तीन परिषदें करनी चाहिए-मृगपरिषद, कालमकालठ्ठाई,
सिंहपरिषद् और वृषभपरिषद्। आगे मृग, बीच में सिंह और सत्थाहऽहाऽऽदियत्तीया। पीछे वृषभ।
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