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३०८७. दोन वि समागया सत्थिगो व
जस्स व वसेण वच्चति तु ।
अणणुण्णविते गुरुगा,
एमेव य एगतरपंते ॥
सार्थवाह और आदियात्रिक दोनों एक साथ आए तो दोनों की अनुज्ञा प्राप्त करनी चाहिए जिसका सार्थ होता है, वह है सार्थवाह । उसकी अथवा जिसके वश में चलता है सार्थ उसकी अनुज्ञा लेनी होती है। बिना उनको अनुज्ञापित किए गमन करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। दोनों में से कोई एक भी प्रान्त हो और उसके साथ गमन करने पर भी यही प्रायश्चित्त है।
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३०८८. जो होइ पेल्लतो तं भणंति तुह बाहुछायसंगहिया । वच्चामऽणुग्गहो त्तिय, गमणं इहरा उ गुरु आणा ॥ जो उनमें प्रेरक-प्रमाणभूत होता है उसे मुनि कहेहम तुम्हारी भुजाओं की छाया में संगृहीत होकर जाना चाहते हैं तब यदि वह कहे आपका मुझ पर अनुग्रह होगा । तब मुनि उस सार्थ के साथ गमन करे। अन्यथा गमन करने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं।
३०८९. पडिसेहण पिच्छुभणं, उवकरणं बालमादि वा हारे ।
अतियत्त गुम्मिएहि व, उड्डुभंते ण वारेति ।। प्रान्त सार्थवाह वाले सार्थ के साथ गमन करने पर वह भक्तपान का प्रतिषेध, सार्थ से निष्कासन, उपकरणों तथा बालसाधुओं का चोरों से अपहरण करा देता है, और चोर आदि साधुओं को लूटते हैं तब आदियात्रिक' या गौल्मिकों द्वारा चोरों का निवारण नहीं कराता, उदासीन रहता है-ये दोष होते हैं।
३०९०. भगवयणे गमणं, मिक्खे भत्तगुणाए वसधीए ।
थंडिल्ल असति मत्तग, वसभा य पदेस वोसिरणं ॥ भद्रक सार्थवाह के कहने पर उस सार्थ के साथ गमन करे। भिक्षा तथा भक्तार्थना भोजन करने विषयक और वसति-विषयक यतना करे । स्थंडिल में व्युत्सर्ग करे। उसके अभाव में मात्रक में उत्सर्ग कर स्थंडिल में परिष्ठापन करे। यह वृषभों की यतना है। यदि सर्वथा स्थंडिल न मिले तो धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय तथा आकाशास्तिकाय के प्रदेशों में व्युत्सर्ग करे।
३०९१. पुव्वं भणिया जयणा, भिक्खे भत्तट्ठ वसहि थंडिल्ले । सा चैव य होति हहं णाणत्तं णवरि कप्पम्मि ॥ भिक्षा, भक्तार्थ, वसति तथा स्थंडिल विषयक यतना जो १. आदियात्रिक-सार्थआरक्षक ।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
पूर्वभणित है, वही अध्वगत के लिए होती है। केवल कल्प अर्थात् अध्वकल्प विषयक यतना में नानात्व है। ३०९२. अग्गहणे कप्पस्स उ,
गुरुमा दुविधा विराहणा णियमा । पुरिसऽद्धाणं सत्थ,
गाउं वा वीण गिण्डिज्जा ॥ अध्वकल्प साथ न लेने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा नियमतः दोनों प्रकार की विराधना ( आत्मविराधना, संयमविराधना) होती है। यदि सार्थ के पुरुष संहनन और धृतिसंपन्न हों, मार्ग केवल एक-दो दिन का हो, सार्थवाह भद्रक आदि हो इन सारे तथ्यों की जानकारी कर अध्वकल्प न ले तो भी कोई दोष नहीं है।
३०९३. सक्कर- घत गुलमीसा, अगंठिमा खज्जूरा व तम्मीसा ।
सत्तू पिण्णामो वा घत गुलमिस्सो खरेणं वा ॥ अध्वकल्प कैसा हो ? घृत और गुड़ से मिश्रित या शर्करा और घृत से मिश्रित 'अग्रन्थिम' टुकड़े-टुकड़े किए हुए कदलीफल, अथवा घृत गुड़ से मिश्रित खर्जूर अथवा घृतगुड़ मिश्रित सनु अथवा घृत-गुड़मिश्रित पिण्याक अथवा खर तैल से मिश्रित पिण्याक ऐसा अध्यकल्प ग्रहण करना चाहिए।
३०९४. थोवा विहणंति खुहं न य तरह करेंति एते खज्जता ।
सुक्खोदणं वडलंभे, समितिम दंतिक्क चुण्णं वा ॥ ये अध्वकल्प थोड़े होने पर भी भूख को मिटाते हैं। इनको खाने से प्यास भी नहीं लगती। ऐसे अध्वकल्प के अभाव में सूखा ओदन या शुष्कमंडक या दंतिकचूर्ण इन सबको घृतगुड़ से मिश्रित कर रखना चाहिए।
३०९५. तिविहाऽऽमयभेसज्जे, वणभेसज्जे स सप्पि - महु-पट्टे ।
सुद्धाऽसति तिपरिरए, जा कम्मं णाउमछाणं ॥ अध्वगत मुनि वातज, पित्तज और श्लेमज इन तीन प्रकार के रोगों के लिए भैषज्य तथा व्रणों पर लेप करने के लिए घृतमिश्रित या मधुमिश्रित भैषज्य तथा व्रणों पर बांधने के लिए पट्टी साथ में ले। ये शुद्ध न मिले तो 'त्रिपरिरय' यतनापूर्वक अर्थात् पंचकपरिहानि से प्रारंभ कर आधाकर्म पर्यन्त दोष की प्रतिसेवना कर उसे ग्रहण करे। मार्ग अल्प है या बहुत यह जानकर उसके अनुसार अध्वकल्प ग्रहण करे।
३०९६. अद्धाण पविसमाणो, जाणगनीसाए गाहए गच्छं ।
अह तत्थ न गाहिज्जा, चाउम्मासा भवे गुरुगा ॥ अध्वगत होने से पूर्व आचार्य गीतार्थ की निश्रा में गच्छ २. गौल्मिक-स्थानरक्षपाल ।
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