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पहला उद्देशक
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को अध्वकल्प प्राप्त कराए। यदि ऐसा नहीं करते हैं तो चार ठहरते हैं। आगे के चार भंगों में सार्थ को अकालनिवेशी गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
जानकर चुडलिका के प्रकाश से संस्तारकभूमी आदि में बिल ३०९७.सभए सरभेदादी, लिंगविओगं च काउ गीयत्था। की गवेषणा करते हैं। आगे के आठ भंगों (९ से १६) रात्री में
खरकम्मिया व होउं, करेंति गुत्तिं उभयवग्गे॥ प्रस्थान करने वाले सार्थ के पीछे रहकर, फिर विहार करते जहां भय हो वहां स्वरभेद-वर्णभेदकारिणी गुटिकाओं का हैं, यदि स्तेनों का भय न हो तो। प्रयोग करते हैं गीतार्थ मुनि लिंग-वियोग कर चलते हैं, ३१०३.सावय अण्णट्ठकडे, अट्ठा सुक्खे सय जोइ जतणाए। जिससे उनकी पहचान न हो सके। अथवा खरकर्मिक-शस्त्रों तेणे वयणचडगरं, तत्तो व अवाउडा होति। से सज्जित होकर चलते हैं, जिससे वे उभयवर्ग-साधु- श्वापद आदि का भय हो तो सार्थ द्वारा कृत वृत्तिपरिक्षेप साध्वी वर्ग की रक्षा कर सकें।
में ठहरें या साधुओं के लिए किए हुए परिक्षेप में रहे। उसके ३०९८.जे पुव्विं उवकरणा, गहिया अद्धाण पविसमाणेहिं। अभाव में स्वयं सूखे कंटक आदि से परिक्षेप तैयार करे।
जं जे जोग्गं जत्थ उ, अद्धाणे तस्स परिभोगो॥ यतनापूर्वक अग्नि का उपयोग करे। यदि चोरों का भय हो तो अध्व-प्रवेश करते समय जो पहले उपकरण साथ में लिए । मुनि परस्पर वचनचटकर-वाग आडंबर करे कि चोर सुनकर थे, उनका मार्ग में यथोचित काल में उपयोग करना चाहिए। भाग जाए। अथवा उन चोरों के अभिमुख होकर अपावृत३०९९.सुक्खोदणो समितिमा, कंजुसिणोदेहि उण्हविय भुंजे। नग्न हो जाएं।
___ मूलुत्तरे विभासा, जतिऊणं णिग्गते विवेगो॥ ३१०४.सावय-तेणपरद्धे, सत्थे फिडिया ततो जति हवेज्जा। सूखा ओदन या शुष्कमंडक को कांजी' के साथ या
अंतिमवइगा विटिय, णियट्टणय गोउलं कहणा॥ उष्णोदक से गरम कर खाना चाहिए। उसमें मूलगुण और श्वापद अथवा चोरों द्वारा सार्थ पर व्याघात किए जाने उत्तरगुणों का चिंतन करना चाहिए। इस प्रकार से यतनापूर्वक पर सार्थ के लोग अनेक दिशाओं में भाग जाते हैं। यदि मुनि मार्ग को संपन्न करने के पश्चात् जो अध्वकल्प अवशिष्ट रहा इस प्रकार सार्थ से बिछुड़ जाएं। अंतिम वजिका में विंटिका। है उसका परिष्ठापन कर देना चाहिए।
साधुओं का निवर्तन। गोकुल का कथन। (विस्तार आगे।) ३१००.कामं कम्मं तु सो कप्पो, णिसिं च परिवासितो। ३१०५.अद्धाणम्मि महंते, वट्टतो अंतरा तु अडवीए। तहा वि खलु सो सेओ, ण य कम्मं दिणे दिणे॥
सत्थो तेणपरद्धो, जो जत्तो सो ततो नट्ठो। ३१०१.आधाकम्माऽसतिं घातो, सई पुव्वहते त्ति य। ३१०६.संजयजणो य सव्वो, कंची सथिल्लयं अलभमाणो।
जे उ ते कम्ममिच्छंति, निग्घिणा ते न मे मता। पंथं अजाणमाणो, पविसेज्ज महाडविं भीमं ।। यह अनुमत है कि अध्वकल्प आधाकर्म है तथा रात्री में सार्थ प्रस्थित है। मार्ग बहुत लंबा है। बीच में एक महान् परिवासित भी है, फिर भी वह श्रेयस्कर है। प्रतिदिन प्राप्त अटवी है। वहां चोरों ने सार्थ पर आक्रमण कर दिया। सार्थ के आधाकर्म श्रेयान नहीं है, क्योंकि प्रतिदिन होने वाले पुरुष जो जहां थे, वे वहां से पलायन कर गए। मुनिजन किसी आधाकर्म में जीवोपघात अनेक बार होता है और अध्वकल्प सार्थपुरुष को न पाकर, मार्ग को न जानते हुए, वे भयंकर में एक ही बार जीवोपघात होता है तथा पूर्वहत जीव प्रतिदिन अटवी में प्रवेश कर गए। नहीं मारे जाते। जो अध्वकल्प का परिभोग करना नहीं ३१०७.सव्वत्थामेण ततो, वि सव्वकज्जुज्जया पुरिससीहा। चाहते, किन्तु आधाकर्म का भोज्य खाने की इच्छा करते हैं,
वसभा गणीपुरोगा, गच्छं धारिति जतणाए। वे निघृण-दयाहीन हैं, इसलिए वे मेरे द्वारा सम्मत नहीं हैं। वहां सर्वशक्तिसंपन्न वृषभ मुनि, जो पुरुषसिंह और सभी ३१०२.कालुट्ठाईमादिसु, भंगेसु जतंति बितियभंगादी। कार्य करने में उद्यत हैं, वे आचार्य के आगे आकर विपत्ति से
लिंगविवेगोवंते, चुडलीए मग्गतो अभए॥ घिरे गच्छ को यतना से धारण करते हैं, रक्षा करते हैं। कालोत्थायी आदि भंगों में द्वितीय भंग से आगे के भंगों ३१०८.जइ तत्थ दिसामूढो, हवेज्ज गच्छो सबाल-वुड्डो उ। में यतना करते हैं। द्वितीय भंग में सार्थ को अकालभोजी वणदेवयाए ताहे, णियमपगंपं तह करेंति॥ जानकर मुनि अपने लिंग को छोड़ कर रात्री में अन्यलिंग से यदि वहां सबालवृद्ध गच्छ दिशामूढ़ हो जाता है तो मुनि भक्त-पान लेते हैं। तीसरे चौथे भंग में सार्थ को वनदेवता के आकंपन के लिए नियमप्रकंप-निश्चयपूर्वक अस्थानस्थायी जानकर बैलों आदि द्वारा आक्रांत भूमी में किया जाने वाला कायोत्सर्ग इस प्रकार करते हैं कि १. लाटदेश में अवश्रावण का अर्थ है-कांजिक।
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