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________________ पहला उद्देशक = २६७ भेजे जाने वाले नौकर, दास, गोपाल-ये शाला में रहते हैं, या सोते हैं, वे साधुओं को प्रत्युपेक्षणा करते देखकर प्रपंच करते हैं स्वयं प्रत्युपेक्षणा करने लग जाते हैं, उपहास करते हैं, साधुओं को स्वाध्याय करते देखकर उड्डुचक साधुओं की भांति बोलकर उनको चिढ़ाते हैं। इन सबको सहन न करने वाला साधु उनसे कलह करने लग जाता है। गृहपति उन कर्मकरों से उत्तेजित होकर साधुओं को वहां से निष्काशित कर देता है। २६३५.आवासग सज्झाए, पडिलेहण भुंजणे य भासा य। उच्चारे पासवणे, गेलन्ने जे भवे दोसा॥ मुनि यदि यह सोचकर कि लोग देखते हैं इसलिए आवश्यक, स्वाध्याय, प्रत्युपेक्षणा आदि नहीं करते या अविधिपूर्वक करते हैं तो उसका प्रायश्चित्त आता है। साधुओं को आहार करते हुए देखकर तथा उनकी भाषा को सुनकर तथा उनको उच्चार-प्रस्रवण करते देखकर गृहस्थ उपहास करते हैं या जुगुप्सा करते हैं। कोई मुनि ग्लान हो तो वह गृहस्थों के रहते कष्ट का अनुभव करता है। ये सारे दोष शाला में रहने से होते हैं। २६३६.आहारे नीहारे, भासादोसे य चोदणमचोदे। किड्डासु य विकहासु य, वाउलियाणं कओ झाओ॥ आहार नीहार तथा भाषा दोष-ये वहां रहने से होते हैं। यदि साधु परस्पर सामाचारी के लिए प्रेरणा देते हैं तो वहां गृहस्थ उपहास करते हैं। प्रेरणा न देने पर सामाचारी की हानि होती है। वहां के गृहस्थ परस्पर क्रीड़ा करते हैं, विकथाओं में संलग्न रहते हैं। उनकी कथाओं में व्याकुल बने हुए मुनियों के स्वाध्याय कैसे होगा? २६३७.वंदामि उप्पलज्जं, अकालपरिसडियपेहुणकलावं। धम्मं किह णु न काहिइ, कन्ना जस्सेत्तिया विद्धा॥ किसी मुनि के स्वभाव से ही या विक्रिया से उसका पुंलिंग त्वचारहित होता है, उसको अपावृत देखकर कोई कर्मकर कहता है-मैं उत्पलार्थ को वंदना करता हूं, अनवसर में परिशटित मयूरपिच्छकलाप वाले साधु को वंदन करता हूं। अथवा किसी महाराष्ट्रदेशीय मुनि के वेंटक से विद्ध लिंग को देखकर उपहास में कहता है-अरे! यह मुनि धर्म कैसे करेगा जिसके इतने कर्ण विद्ध हैं? २६३८.अहिगरणं तेहि समं, अज्झोवायो य होइ महिलाणं। तक्कम्मभाविताणं, कुतूहलं चेव इतरीणं। यह सब सुनकर कोई असहनशील साधु उनके साथ कलह करने लग जाता है। जो महिलाएं उस प्रकार के विकुर्वीत लिंग से प्रतिसेवना करने से भावित मन वाली हों, उनका उस साधु के प्रति अनुराग हो जाता है। दूसरी महिलाओं को कुतूहल होता है। २६३९.अहाइय ने वयणं, वच्चामो राउलं सभं वा वि। गोसे च्चिय अदाए, पेच्छंताणं सुहं कत्तो। नग्न मुनियों को देखकर वे कर्मकर आदि कहते हैं-आदर्श दर्शन से हमारा वदन पवित्र हो गया है, अतः हम राजकुल या सभा में जाएं। अथवा आज प्रभातवेला में ही इन मुनियों को अपावृत पुतों के दर्शन हुए हैं, अतः आज हमें सुख कहां? २६४०.हत्थाईअक्कमणं, उप्फुसणादी व ओहुए कुज्जा। गेलन्न मरण आसिय, विणास गरिहं दिय निसिं वा॥ मुनियों के आगमन-निर्गमन पथ पर बच्चे बैठे हों या खेल रहे हों। मुनियों द्वारा उनके हाथ-पैर आदि आक्रांत होने पर या उस बालक का उल्लंघन होने पर उसकी मां पानी से उत्स्पर्शन करती है अथवा लवणोत्तारण करती है। अथवा वह बालक ग्लान हो जाए या मर जाए तो शाला से साधुओं को निकाल देते हैं। २६४१.भोत्तव्वदेसकाले, ओसक्कऽहिसक्कणं व ते कुज्जा। दरभुत्ते वऽचियत्तं, आगय णिते य वाघाओ।। भोजन करने के देश-काल में वे गृहस्थ अवष्वष्कण या अभिष्वष्कण करते हैं। वे सोचते हैं जब साधु यहां से जायेंगे, तब उससे पूर्व हम भोजन कर लेंगे अथवा साधुओं के भिक्षा के लिए जाने के बाद भोजन कर लेंगे। वे गृहस्थ अभी आधा भोजन ही कर पाए हैं, इतने में साधु आ जाएं तो गृहस्थों के मन में अप्रीति होती है। इस अप्रीति के भय से मुनि भिक्षा लेकर आने और भिक्षा के लिए जाने में गृहस्थों के भोजन की प्रतीक्षा करते हैं। इससे भोजन, स्वाध्याय आदि में व्याघात होता है। २६४२.कुड्डाइलिंपणट्ठा, पुढवी दगवारगो य उहित्ता। कयविक्कयसंवहणे, धन्नं तह उक्खल तडे य॥ वहां कुड्य आदि के लिंपन के लिए मिट्टी रखी हुई है, पानी का घड़ा भरा हुआ हो, अग्नि जल रही हो, धान्य के क्रय-विक्रय के लिए उनका बिखराव हो, तो साधुओं के आने-जाने से संघट्टन आदि दोष होते हैं। उस शाला के पास ही कहीं उदूखल रखा हो। वहां स्त्रियां धान कूटने आती हैं और विविध गीत गाती हैं। २६४३.एवं ता पमुहम्मी, जा साला कोट्टतो अलिंदो वा। भूमीइ व मालम्मि व, ठियाण मालम्मि सविसेसा॥ इस प्रकार प्रमुख-गृहद्वार में, शाला में, कोष्ठक में तथा आलिंद में रहने से ये दोष होते हैं। ये शाला आदि भूमीतल पर भी होते हैं और माल-ऊपरीतन भूमी में भी होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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