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-बृहत्कल्पभाष्यम्
गाहावइकलमज्झवास-पदं
२६२३.नउई-सयाउगो वा, खट्टामल्लो अजंगमो थेरो।
अन्नेण उद्यविज्जइ, भोइज्जइ सो य अन्नेणं ।। जो स्थविर नब्बे वर्ष का या शतायु वर्ष का हो, जो खट्रामल्ल है-खाट में पड़ा रहता हो, जो बाहर जा नहीं सकता, जो दूसरों के द्वारा उठाया जाता है, भोजन कराया जाता है वैसा स्थविर 'पूपलिकाखादक' कहा जा सकता है। २६२४.पूवलियं खायंतो, चब्बच्चबसद्द सो परं कुणइ।
एरिसओ वा सहो, जारिसओ पूवभक्खिस्स। वह स्थविर पूपलिका खाता हुआ केवल चव-चव शब्द करता है। जैसा शब्द पूपलिका खाने वाले का होता है वैसा शब्द बोलने वाले का हो वह पूपलिकाखादक कहा जाता है। २६२५.सो वि य कुटुंतरितो, खाहुत्थूभाउ कुणइ जत्तेणं।
परिदेवइ किच्छाहि य, अवितक्वंतो विगयभावो॥ वह पूपलिकाखादक श्रमणियों के प्रतिश्रय के कुड्यान्तरित रहता हुआ भी खांसी और निष्ठीवन ये दो क्रियाएं भी कष्ट से करता है। वह कष्ट से उठ-बैठ सकता है। वह वितर्क न करता हुआ विगतभाव होता है। इस प्रकार के पूपलिकाखादक शब्द से प्रतिबद्ध उपाश्रय में श्रमणियां रह सकती हैं। २६२६.अवि होज्ज विरागकरो, सद्दो रूवं च तस्स तदवत्थं ।
ठाणं च कुच्छणिज्जं, किं पुण रागोब्भवो तम्मि॥ उस पूपलिकाखादक स्थविर के शब्द, उस अवस्था में उसका रूप तथा उसका कुत्सनीय स्थान ये सभी स्त्रियों के लिए वैराग्यकर होते हैं। उनमें रागोद्भव कैसे हो सकता है? २६२७.एयारिसम्मि रूवे, सद्दे वा संजईण जइऽणुण्णा।
समणाण किंनिमित्तं, पडिसेहो एरिसे भणिओ॥ यदि इस प्रकार के रूप, शब्द आदि में श्रमणियों को रहने की अनुज्ञा है तो फिर श्रमणों को इस प्रकार के स्त्रीप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने का निषेध क्यों किया गया है? २६२८.मोहोदएण जइ ता, जीवनिउत्ते वि इत्थिदेहम्मि। ___दिट्ठा दोसपवित्ती, किं पुण सजिए भवे देहे॥
जब मोहोदय के कारण जीववियुक्त स्त्रीदेह में भी पुरुषों की प्रतिसेवना की प्रवृत्ति देखी जाती है तो फिर सजीव देह में वह क्यों नहीं होगी! इसलिए प्रतिषेध किया गया है।
नो कप्पइ निग्गंथाणं गाहावइकुलस्स
मज्झमज्झेणं गंतुंवत्थए॥ (सूत्र ३२) २६२९.जह चेव य पडिबंधो,निवारिओ सुविहियाण गिहिएसु।
तेसिं चिय मज्झेणं, गंतूण न कप्पए जोगो॥ जैसे पूर्व सूत्र में सुविहित मुनियों के लिए गृहस्थ विषयक प्रतिबंध निवारित किया था उसी प्रकार यहां भी गृहस्थों के बीच रहना नहीं कल्पता, यह योग संबंध है। २६३०.मज्झेण तेसि गंतुं, गिही व गच्छंति तेसि मज्झेणं।
पविसंत निंत दोसा, तहियं वसहीए भयणा उ॥ गृहस्थों के बीच से जहां प्रवेश और निर्गमन किया जाता है अथवा संयमियों के मध्य होकर गृहस्थ आते-जाते हैं, वहां रहना नहीं कल्पता। वैसे उपाश्रय में मुनियों के तथा गृहस्थों के आने-जाने में जो दोष होते हैं वे आगे (गाथा २६४० में) कहे जाएंगे। ऐसी वसति में रहने से दोषों की भजना है। २६३१.सब्भावमसब्भावं, मज्झमसब्भावतो उ पासेणं।
निव्वाहिमनिव्वाहिं, ओकमइंतेसु सब्भावं॥ मध्य के दो प्रकार हैं-सद्भावमध्य और असदावमध्य। जहां आना-जाना गृहपतिगृह के पार्श्व से होता है वह असद्भावमध्य है। जहां घर के बीच से आना-जाना होता है वह सद्भावमध्य है। दोनों के दो-दो प्रकार हैं-निर्वाही और अनिर्वाही। जहां घर और उपाश्रय का फलिह पृथक्-पृथक हो वह निर्वाही और जहां दोनों का फलिह एक ही हो वह अनिर्वाही होता है। २६३२.साला य मज्झ छिंडी, निग्गंथाणं न कप्पए वासो।
चउरो य अणुग्घाया, तत्थ वि आणाइणो दोसा। उपरोक्त चारों प्रकारों के तीन-तीन भेद होते हैं-शाला, मध्यम और छिंडिका (घर का पिछवाड़ा)। इन तीनों में निर्ग्रथों को रहना नहीं कल्पता। यदि रहते हैं तो चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २६३३.सालाए पच्चवाया, वेउब्वियऽवाउडे य अदाए।
कप्पट्ठ भत्त पुढवी, उदगऽगणी बीय अवहन्ने॥ शाला में रहने से ये प्रत्यवाय होते हैं-अपावृत वैक्रिय अंगादान, अपावृत कल्पस्थ, भक्त, पृथ्वी, उदग, अग्नि, बीज, उदूखल.... (इनकी व्याख्या आगे।) २६३४.सालाए कम्मकरा, घोडा पेसा य दास गोवाला।
पेह पवंचुहुंचय, असहण कलहो य निच्छुभणं ।। शाला में रहने वाले कर्मकर, घोटा-विद्यार्थी, प्रेष्य- बाहर
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