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पहला उद्देशक
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हो, अत्यंत परिचित हो वह सूत्र, अंगबाह्य या अंगप्रविष्ट कोई आगम जो कंठस्थ हो, उसका इस प्रकार परावर्तन करे कि वह परिचारणा शब्द सुनाई न दे। जो साधु ध्यानलब्धिसंपन्न है वह ध्यान करे। २६१३.दोसु वि अलद्धि कण्णे, ठएइ तह वि सवणे करे सह।
जह लज्जियाण मोहो, नासइ जणनायकरणं वा।। दोनों अर्थात् स्वाध्याय और ध्यान की लब्धि न होने पर कानों का स्थगन कर दे। फिर भी यदि शब्द सुनाई दे तो इस प्रकार शब्द करे कि वे दोनों (पति-पत्नी) लज्जित हो जाएं।
और उनका मोह नष्ट हो जाए। फिर भी यदि संभोग से उपरत नहीं हो तो लोगों को ज्ञात करा देते हैं कि देखो, यह हमारे सामने अनाचार का सेवन कर रहा है। २६१४.उभओ पडिबद्धाए, भयणा पन्नरसिया य कायव्वा।
दव्वे पासवणम्मि य, ठाणे रुवे य सद्दे य॥ उभयत अर्थात् द्रव्य और भाव से प्रतिबद्ध वसति के पन्द्रह भंगों की रचना करनी चाहिए। सोलहवां भंग-द्रव्यतः प्रतिबद्ध परन्तु प्रस्रवण आदि से नहीं यह होता है, इसी प्रकार स्थान, रूप और शब्द से प्रतिबद्ध-यह भंग नहीं होता। अतः पन्द्रह भंग ही गृहीत है। २६१५.उभओ पडिबद्धाए, ठायंते आणमाइणो दोसा।
ते चेव पुव्वभणिया, तं चेव य होइ बिइयपयं॥ उभयतः प्रतिबद्ध प्रतिश्रय में रहने से पूर्वभणित आज्ञा- भंग आदि दोष होते हैं। इसमें अपवादपद भी पूर्वोक्त की भांति ही जानना चाहिए।
द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से अप्काय-शकटयोजन आदि दोष श्रमणियों के भी वैसे ही होते हैं, विशेष यह है कि वह उपाश्रय वहां रहने वाली स्त्रियों से ही प्रतिबद्ध है, पुरुषों से नहीं। वह श्रमणियों का प्रतिश्रय गृहस्थ के न अत्यन्त निकट और न अतिदूर होता है। २६१८.अज्जियमादी भगिणी,
__ जा यऽन्न सगारअब्भरहियाओ। विहवा वसंति सागारियस्स
पासे अदूरम्मि॥ जहां अति दूर नहीं, निकट में आर्यिका-दादी, नानी रहती हो, भगिनी अथवा अन्य-भाभी आदि तथा शय्यातर की कोई पूज्य विधवा रहती हों, उनसे प्रतिबद्ध उपाश्रय में श्रमणियां रह सकती हैं। २६१९.एयारिस गेहम्मी, वसंति वइणीउ दव्वपडिबद्धे।
पासवणादी य पया, ताहि समं होति जयणाए। इस प्रकार स्त्रियों से द्रव्यतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में श्रमणियां रहती हैं। उनके साथ रहती हुई वे प्रस्रवण आदि पदों को यतनापूर्वक करती हैं। २६२०.कामं अहिगरणादी, दोसा वइणीण इत्थियासुं पि।
ते पुण हवंति सज्झा, अणिस्सियाणं असज्झा उ॥ स्त्रीप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहती हुई श्रमणियों के भी अधिकरण आदि दोष होते हैं, यह कामं अनुमत है। परन्तु वे दोष साध्य होते हैं, अर्थात् यतना से उनका परिहार किया जा सकता है। (देखें गाथा २५९०)। अनिश्रित रहने पर जो तरुण आदि से समुत्थदोष होते हैं वे असाध्य होते हैं। २६२१.पासवण-ठाण-रूवा, सद्दो य पुमंसमस्सिया जे उ।
भावनिबंधो तासिं, दोसा ते तं च बिइयपदं॥ जो प्रस्रवण-स्थान-रूप-शब्द वाले उपाश्रय पुरुषों से आश्रित हों, प्रतिबद्ध हों, वहां साध्वियों का भावनिबंध अर्थात् भावप्रतिबद्ध है। उसमें पूर्वोक्त दोष तथा अपवाद पद भी वही है। २६२२.बिइयपय कारणम्मी, भावे सद्दम्मि पूवलियखाओ।
तत्तो ठाणे रूवे, काइय सविकारसद्दे य॥ अपवाद में तथा कारण में अर्थात् अध्वनिर्गत आदि में भावप्रतिबद्ध प्रतिश्रय में रहना पड़े तो सबसे पहले पूपलिकाखादक वाले शब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे, ततः उसीके स्थानप्रतिबद्ध ततः रूपप्रतिबद्ध, ततः कायिकप्रतिबद्ध अथवा वायुकाय के विसर्जन से शब्द होता है, उससे सविकारशब्द वाले प्रतिश्रय में रहे।
कप्पइ निग्गंथीणं पडिबद्धसेज्जाए वत्थए।
(सूत्र ३१)
२६१६.एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि नवरि चउलहुगा।
सुत्तनिवाओ निहोसे, पडिबद्धे असइ उ सदोसे॥ यही क्रम नियमतः श्रमणियों के लिए भी है। जो प्रतिबद्ध उपाश्रय में ठहरती हैं उनके लिए चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है। शिष्य ने कहा-तब तो इस नवीन का निपात निरर्थक है, क्योंकि पूर्व में श्रमणियों का वहां अवस्थान अनुज्ञात है। आचार्य कहते हैं-सूत्र का निपात तो निर्दोषप्रतिबद्ध उपाश्रय के लिए है, प्रायश्चित्त सदोष प्रतिश्रय के लिए है। यदि निर्दोष प्रतिबद्ध उपाश्रय प्राप्त न हो तो सदोषप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहा जा सकता है। २६१७.आउज्जोवणमादी, दव्वम्मेि तहेव संजईणं पि।
नाणत्तं पुण इत्थी, नऽच्चासन्ने न दूरे य॥
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