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=बृहत्कल्पभाष्यम्
उपाश्रयों में स्मृतिजन्य और कौतूहलजन्य ये दोष होते हैं। तब वे इस प्रकार करते हैं२६०३.पडिगमणमन्नतित्थिग, सिद्धी संजइ सलिंग हत्थे य। ___ अद्धाण-वास-सावय-तेणेसु व भावपडिबद्धे॥
वे मुनि प्रतिगमन कर देते हैं अथवा अन्यतीर्थिकों में चले जाते हैं अथवा सिद्धपुत्रिका, संयती या स्वलिंगी स्त्री के साथ प्रतिसेवना करते हैं या हस्तकर्म में लग जाते हैं। ये दोष हो सकते हैं, अतः भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में नहीं रहना चाहिए। इन कारणों से वहां रहा भी जा सकता है-अध्वान प्रतिगत, अन्य वसति न मिलने पर, श्वापद या चोरों का भय होने पर। २६०४.विहनिग्गया उजइउं, रुक्खे जोइ पडिबद्ध उस्सा वा।
ठायंति अह उ वासं, सावय-तेणादओ भावे॥ मार्गनिर्गत अथवा तीन बार गवेषणा करने भी अन्य वसति न मिलने पर वे वृक्ष के नीचे या ज्योतियुत द्रव्यप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहते हैं अथवा वर्षा गिर रही हो, श्वापद या चोरों का भय होने पर भावप्रतिबद्ध वसति में भी रहा जा सकता है। २६०५.भावम्मि ठायमाणा, पढम ठायंति रूवपडिबद्धे।
तहियं कडग चिलिमिली, तस्सऽसती ठंति पासवणे॥ भावप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने वाले मुनि सर्वप्रथम रूप- प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। वहां अंतराल में कटक या चिलिमिलिका बांध दे। उस रूपप्रतिबद्ध उपाश्रय के अभाव में प्रस्रवणप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। २६०६.असई य मत्तगस्सा, निसिरणभूमीइ वा वि असईए।
वंदेण बोलकरणं, तासिं वेलं च वज्जिति॥ मात्रक के अभाव में, दूसरी कायिकी निसर्जनभूमी के अभाव में दो-चार मुनि एक साथ आवाज करते हुए उसी कायिकी भूमी में प्रवेश करें। वे श्रमणियों के कायिकी- व्युत्सर्जनवेला का वर्जन अवश्य करें। २६०७.भूसण-भासासद्दे, सज्झाय ज्झाण निच्चमुवओगो।
उवगरणेण सयं वा, पेल्लण अन्नत्थ वा ठाणे॥ प्रस्रवणप्रतिबद्ध उपाश्रय के अभाव में मुनि भूषणशब्द- प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। उसके अभाव में भाषाप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। वहां स्वाध्याय करें और ध्यान में नित्य उपयोगवान् रहे। इस प्रकार के उपाश्रय के अभाव में स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। वहां यदि स्त्रियां उपकरणों अथवा स्वयं को इस प्रकार प्रस्तुत करें कि मुनि को उस ओर देखने की प्रेरणा मिले। मुनि ऐसे स्थान को छोड़कर अन्यत्र स्थान में जाकर रहे।
२६०८.परियारसद्दजयणा, सद्द वए चेव तिविह तिविहा य।
उदाण-पउत्थ-सहीणभोइया जा जस्स वा गुरुगी॥ स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय के अभाव में रहस्यशब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहे। परिचार शब्द (स्त्री का भोग करते समय होने वाला स्त्री का शब्द) को सुनकर वहां मुनि की यतना यह है कि वह स्वाध्याय आदि में लग जाए। इस प्रकार के शब्द और अवस्था के आधार पर स्त्री के तीन प्रकार हैंतीव्रशब्दवाली, मध्यमशब्दवाली और मन्दशब्दवाली। अवस्था के आधार पर स्त्रियों के तीन प्रकार हैं-स्थविरा, मध्यमा और तरुणी। इनमें प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-अपद्राणभर्तृका, प्रोषितभर्तृका, स्वाधीनभोक्तृका। जो मुनि जिस शब्द में अनुरक्त है, वह उसके लिए गुरुक है। वह ऐसे गुरूकस्त्री से प्रतिबद्ध उपाश्रय को छोड़ दे। २६०९.उद्दाण परिदृविया, पउत्थ कन्ना सभोइया चेव।
थेरी मज्झिम तरुणी, तिव्वकरी मंदसदा य॥ जहां कन्या-अपरिणीत स्त्री हो, उसके अभाव में अपद्राणभर्तृका स्त्री हो, उसके अभाव में भर्ता द्वारा परिष्ठापित-त्यक्त स्त्री हो, उसके अभाव में प्रोषितभर्तृका स्त्री हो, उसके अभाव में सभोजिका स्वाधीन भर्तृका स्त्री हो, उसमें भी स्थविरा आदि के क्रम से अर्थात् स्थविरा. मध्यमा, तरुणी के क्रम से, उनमें भी तीव्रशब्दकरी, मध्यमशब्दकरी, मंदशब्दकरी-इनमें व्युत्क्रम से मुनि उन उपाश्रयों में रह सकता है। २६१०.थेरी मन्झिम तरुणी, वएण तिविहित्थि तत्थ एक्केका।
तिव्वकरी मज्झकरी, मंदकरी चेव सहेणं॥ वय से स्त्रियां तीन प्रकार की हैं-स्थविरा, मध्यमा और तरुणी। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं-तीव्रशब्दकरी, मध्यमशब्दकरी और मंदशब्दकरी। २६११.पासवण मत्तएणं, ठाणे अन्नत्थ चिलिमिली रूवे।
सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे वा।। कायिकीप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहना हो तो प्रस्रवण मात्रक में करे। स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय की स्थिति में अन्यत्र जाकर रहे। रूपप्रतिबद्ध उपाश्रय में चिलिमिलिका का उपयोग करे। शब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय में स्वाध्याय करे, जिससे कि परिचारणा का शब्द सुनाई न दे अथवा ध्यान करे। इतने पर भी शब्द सुनाई दे तो कानों का स्थगन करे या ऐसा शब्द करे कि वह शब्द स्थगित हो जाए। २६१२.वेरग्गकरं जं वा, वि परिजियं बाहिरं व इअरं वा।
सो तं गुणेइ साहू, झाणसलद्धी उ झाएज्जा।। अथवा मुनि वैराग्यपरक सूत्र या जो स्वयं का अभ्यस्त
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