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पहला उद्देशक =
रात
२५९२.भावम्मि उ पडिबद्धे, चउरो गुरुगा य दोस आणादी।
ते वि य पुरिसा दुविहा, भुत्तभोगी अभुत्ता य॥ भावतः प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। वे पुरुष दो प्रकार के होते हैं-भुक्तभोगी और अभुक्तभोगी। २५९३.भावम्मि उ पडिबढे, पनरससु पदेसु चउगुरू होति।
एकेक्काउ पयाओ, हवंति आणाइणो दोसा॥ भावप्रतिबद्ध उपाश्रय चार प्रकार के हैं। उनके विकल्प सोलह होते हैं। प्रथम भंग से पन्द्रहवें विकल्प तक चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। एक-एक पद से आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। सोलहवां विकल्प चारों पदों से शुद्ध होता है। २५९४.ठाणे नियमा रूवं, भासासदो य भूसणे भइओ।
काइय ठाणं नत्थी, सद्दे रुवे य भय सेसे॥ स्थानप्रतिबद्ध उपाश्रय में नियमतः रूप अवलोकन और भाषा-शब्दों का श्रवण होता है और भूषण शब्दों की वहां भजना है। प्रस्रवण प्रतिबद्ध उपाश्रय में स्थान नहीं होता, भाषा, भूषण और रूप की संभावना होती है। शब्द और रूप प्रतिबद्ध उपाश्रय में शेष की भजना है। २५९५.आयपरोभयदोसा, काइयभूमी य इच्छऽणिच्छंते।
संका एगमणेगे, वोच्छेद पदोसतो जं च॥ कायिकीभूमी से प्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से आत्मसमुत्थदोष, परसमुत्थदोष तथा उभयसमुत्थदोष होते हैं। साधु की इच्छा होने पर वह संयम से भ्रष्ट हो जाता है और इच्छा न होने पर वह स्त्री उड्डाह करती है। स्त्री पहले कायिकीभूमी में गई और यदि मुनि भी वहीं जाता है तो शंका होती है। इससे एक साधु अथवा साधु समुदय का व्यवच्छेद हो सकता है। अथवा प्रद्वेषवश उस स्त्री के स्वजन उस साधु को पकड़ कर आकर्षण आदि कर सकते हैं। २५९६.दुग्गूढाणं छन्नंगदंसणे भुत्तभोगि सइकरणं।
वेउव्वियमाईसु य, पडिबंधुडंचयाऽऽसंका।। जो स्त्रियां दुYढ़ अर्थात् दुष्प्रावृत्त हैं उनके गुप्तांगों को देखता है, उस भुक्तभोगी मुनि के सारी स्मृतियां ताजी हो जाती हैं। किसी मुनि के वैक्रिय सागारिक (प्रजनन लिंग) को देखकर स्त्री उसके साथ प्रतिबंध कर लेती है, कोई अगार उहुंचक (लिंग में जकड़न) करता है, लोगों को आशंका होती है कि ये श्रमण स्त्रियों के साथ ऊठ-बैठ रहे हैं, इनका आचार शुद्ध नहीं है। २५९७.बंभवयस्स अगुत्ती, लज्जानासो य पीइपरिवुड्डी।
साहु तवोवणवासो, निवारणं तित्थपरिहाणी॥
सभी प्रस्रवण आदि स्थानों में ये दोष होते हैं-ब्रह्मचर्य की अगुप्ति, लज्जानाश, प्रीति की परिवृद्धि, लोग उपहास करते हुए कहते हैं-ये मुनि तो तपोवनों में रहते हैं। इनके पास कोई दीक्षित न हो-ऐसा कहकर वे निवारण करते हैं। इससे तीर्थ का व्यवच्छेद होता है। २५९८.चंकम्मियं ठियं मोडियं च विप्पेक्खियं च सविलासं।
आगारे य बहुविहे, द8 भुत्तेयरे दोसा।। रूपप्रतिबद्ध उपाश्रय में रहने से ये दोष होते हैं-स्त्रियों के चंक्रमण, उनकी ऊर्ध्वस्थित अवस्था, शरीर का मोड़ना, विशेषरूप से देखने की स्थितियां, विलासयुक्त हावभाव तथा अनेक प्रकार के आकारों को देखकर भुक्तभोगी तथा अन्य मुनियों में अनेक दोष होते हैं। २५९९.जल्ल-मलपंकियाण वि, लायन्नसिरी जहेसि देहाणं।
सामन्नम्मि सुरूवा, सयगुणिया आसि गिहवासे॥ नानादेशीय उन मुनियों को देखकर स्त्रियों में ये दोष होते हैं-जल्ल और मल से पंकिल शरीर वाले इन मुनियों की लावण्यश्री श्रामण्य में भी इतनी प्रबल है, सुरूप है तो गृहवास में इन मुनियों की लावण्यश्री शतगुणित होनी चाहिए। २६००.गीयाणि य पढियाणि य,
हसियाणि य मंजुला य उल्लावा। भूसणसद्दे राहस्सिए अ
सोऊण जे दोसा॥ शब्दप्रतिबद्ध उपाश्रय के दोष-स्त्रियों के गीत, पठित, हसित, मंजुल उल्लाप, भूषणशब्द, राहस्यिकशब्द आदि शब्दों को सुनकर भुक्त-अभुक्तदोषों से निष्पन्न प्रायश्चित्त आचार्य को आता है। २६०१.गंभीर-महुर-फुड-विसयगाहओ
सुस्सरो सरो जह सिं। सज्झायस्स मणहरो,
गीयस्स णु केरिसो आसी॥ साधुओं के स्वाध्याय के शब्दों को सुनकर स्त्रियां सोचती हैं-इन मुनियों का शब्द गंभीर, मधुर, स्फुट, विषयग्राहक-अर्थवाची, सुस्वर-ऐसा मनोहर स्वर इनका स्वाध्याय में है तो फिर गृहवास में इनके गीतों का स्वर कैसा रहा होगा? २६०२.पुरिसा य भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता।
कोऊहल-सइकरणुब्भवेहिं दोसेहिमं कुज्जा । वे मुनि (संयत पुरुष) दो प्रकार के होते हैं-कई भुक्तभोगी और कई अभुक्तभोगी निष्क्रान्त होते हैं। उन मुनियों के ऐसे
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