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________________ २४४ =बृहत्कल्पभाष्यम् होता है। शेष अर्थात् पंचेन्द्रिय स्थलचर, खेचर प्राणियों से २४०८.पण दस पनरस वीसा, पणवीसा मास चउर छ च्चेव। युक्त दकतीर संपातिम होता है। अथवा पक्षी जहां आकर लहु गुरुगा सव्वेते, छेदो मूलं दुगं चेव। रहते हैं वह है संपातिम, उनको छोड़कर स्थलचर, जलचर पांच दिन-रात, दस-पन्द्रह-बीस-पचीस दिन-रात, आदि शेष प्राणियों से युक्त दकतीर असंपातिम है। मास, चार मास, छह मास-ये सब लघु और गुरु-दोनों होते २४०३.असंपाइ अहालदे, हैं। छेद, मूल, तथा दो-अनवस्थाप्य और पारांचिक-ये बीस अद्दिढे पंच दिट्ठि मासो उ।। प्रायश्चित्त स्थान हैं। पोरिसि अदिहि दिढे, २४०९.पणगाइ असंपाइम, संपाइमऽदिट्ठमेव दिवे य। ___ लहु गुरु अहि गुरुओ लहुआ उ॥ चउगुरुए ठाइ खुड्डी, सेसाणं वुटि एक्कक्कं ।। असंपातिम दकतीर पर जघन्य यथालंद तक अदृष्टरूप में इन सभी प्रायश्चित्तों की चारणिका, पंचविध साध्वियों के रहता है उसका प्रायश्चित्त है पांच दिन-रात और दृष्टरूप में रहता है, उसका प्रायश्चित्त है लघुमास। वहां पौरुषी काल पांच दिन-रात आदि। असंपातिम, संपातिम दकतीर, तक अदृष्ट रहता है तो लघुमास, दृष्ट रहता है तो गुरुमास, दृष्ट-अदृष्ट रूप में, ठहरना आदि, क्षुल्लिका साध्वी का पौरुषी से अधिक अदृष्ट रहता है तो मासगुरु और दृष्ट प्रायश्चित्त वर्णन है। शेष साध्वियों के एक-एक स्थान की रहता है तो चतुर्लघु। प्रारंभ में वृद्धि और अधस्तन में एक-एक स्थान की हानि २४०४.संपाइमे वि एवं, मासादी नवरि ठाइ चउगुरुए। होती है। जैसे स्थविरा साध्वी के गुरु पंचक से प्रारंभ कर भिक्खू-वसभाऽऽयरिए, तव-कालविसेसिया अहवा॥ षड्लघुक पर्यन्त आदि। संपातिम दकतीर में भी यही प्रायश्चित्त है। वह २४१०.छल्लहुए ठाइ थेरी, प्रायश्चित्त लघुमास से प्रारंभ होकर चतुर्गुरु पर्यन्त जाता है। ___ भिक्खुणि छग्गुरुए छेद गणिणी उ। अथवा ये प्रायश्चित्त भिक्षु, वृषभ तथा आचार्य के तप और मूले पवत्तिणी पुण, काल से विशेष हो जाते हैं। जह भिक्खुणि खुड्डए एवं॥ २४०५.अहवा भिक्खुस्सेयं वसभे लहुगाइ ठाइ छल्लहुए। स्थविरा साध्वी के षडलघु पर्यन्त, भिक्षुणी के षड्गुरु अभिसेगे गुरुगादी, छग्गुरु लहु छेदो आयरिए॥ पर्यन्त और गणिनी के छेद पर्यन्त और प्रवर्तिनी के मूल अथवा यह प्रायश्चित्त भिक्षु का जानना चाहिए। वृषभ का पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। भिक्षुणी की जो प्रायश्चित्त विधि मासलघु से प्रारंभ होकर षड्लघुक पर्यन्त, अभिषेक अर्थात् है, वही क्षुल्लक की है। उपाध्याय का मासगुरु से षड्लघुक पर्यन्त, आचार्य का २४११.गणिणिसरिसो उ थेरो, चतुर्गुरु से छेद पर्यन्त होता है। पवत्तिणिविभागसरिसओ भिक्खू। २४०६.अहवा पंचण्हं संजईण समणाण चेव पंचण्हं। अड्डोक्कंती एवं, पणगादी आरद्धं, णेयव्वं जाव चरिमपदं॥ सपदं सपदं गणि-गुरूणं॥ अथवा पांचों प्रकार की साध्वियों तथा पांचों प्रकार के गणिनी के सदृश होता है स्थविर, प्रवर्तिनी के सदृश श्रमणों का पांच दिन-रात से प्रारब्ध प्रायश्चित्त चरमपद होता है भिक्षु । अ पक्रांति से (अधस्तन के एक पद के ह्रास अर्थात् पारांचिक पर्यन्त जानना चाहिए। से तथा उपरितन के एक की वृद्धि से) गणी-उपाध्याय २४०७.संजइ संजय जह संपऽसंप अहलंद पोरिसी अहिया। गुरु-आदि का प्रायश्चित्त जानना चाहिए। गणी और आचार्य चिट्ठाई अद्दिद्वे, दिढे पणगाइ जा चरिमं॥ के स्वपद-स्वपद तक प्रायश्चित्त जानना है। गणी का स्वपद साध्वियां-क्षुल्लिका, स्थविरा, भिक्षुणी, अभिषेका और अर्थात् अनवस्थाप्य पर्यन्त और आचार्य का स्वपद अर्थात् प्रवर्तिनी-ये पांच तथा साधु-क्षुल्लक, स्थविर, भिक्षुक, पारांचिक पर्यन्त। उपाध्याय और आचार्य-ये पांच संपातिम और असंपातिम २४१२.एवं तु चिट्ठणादिसु, सव्वेसु पदेसु जाव उस्सग्गो। दकतीर, यथालंदकाल, पौरुषी काल तथा पौरुषी से पच्छित्ते आदेसा, इविक्कपयम्मि चत्तारि॥ अधिक काल, ठहरना आदि दस पद, दृष्ट-अदृष्ट इनमें पांच इसी प्रकार स्थान-निषीदन आदि कायोत्सर्ग पर्यन्त सभी दिन-रात से प्रारब्ध प्रायश्चित्त चरम प्रायश्चित्त पर्यन्त ले पदों के प्रायश्चित्त विषयक चार आदेश हैं। प्रत्येक पद में जाना चाहिए। चार-चार हैं। एक हे औधिक प्रायश्चित्त, दूसरा है वही तप चिहं सजावं जाव प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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