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________________ पहला उद्देशक = २४३ आरण्यक शबरी (भील स्त्री) आदि स्त्रियां प्रायः पानी भरकर तूर्य का-सा शब्द करता है अथवा क्रोंचवीरकवस्त्रविरहित और निर्लज्ज होती हैं। साधु को वहां देखकर जलयान विशेष से पानी में घूमता है, स्नान कर कोई 'यह आर्य पुरुष है' ऐसा सोचकर कुतूहल से पास आती हैं। सुगंधित द्रव्य लगाता है, केशों को संवारता है, अन्य उनको देखकर साधु के संयमविराधना और अलंकार आदि धारण करता है-यह देखकर साधु के मन में आत्मविराधना-दोनों दोष होते हैं। साधु और शबरी को पास पूर्वस्मृति उभर आती है। में देखकर पुलिन्द क्रोधवश दोनों का वध कर सकता है। २३९८.मज्जणवहणट्ठाणेसु अच्छते इत्थिणं ति गहणादी। २३९४.थी-पुरिसअणायारे, खोभो सागारियं ति वा पहणे। एमेव कुच्छितेतर, इत्थि सविसेस मिहुणेसु॥ गामित्थी-पुरिसेहि वि, ते च्चिय दोसा इमे अन्ने॥ सामान्यतः स्त्रियों के स्नान करने के अथवा जल ले जाने अथवा पुलिन्द पुलन्द्रि के साथ अनाचार सेवन करता है, के स्थान में साधु को बैठा देखकर, स्त्री के ज्ञातिजन उस पर यह देखकर उसका मन क्षुब्ध हो जाता है। अथवा पुलिन्द शंका कर उसका ग्रहण-आकर्षण आदि कर सकते हैं। अथवा साधु को सागारिक मानकर उसका वध कर सकता है। ये जो स्त्रियां कुत्सित अथवा अकुत्सित जाति की हैं, उनसे दोष दोष ग्रामीण तथा आरण्यक स्त्री-पुरुषों से संबंधित दोष हैं।। उत्पन्न हो सकते हैं। दंपतियों को वहां क्रीडारत देखकर ये अन्य दोष भी होते हैं। विशेष दोषों का उद्भव होता है। २३९५.चंकमणं निल्लेवण, चिट्ठित्ता तम्मि चेव तूहम्मि। २३९९.चिट्ठण निसीयणे या, तुयट्ट निद्दा य पयल सज्झाए। अच्छंते संकापद, मज्जण दटुं सतीकरणं॥ झाणाऽऽहार वियारे, काउस्सग्गे य मासलहू॥ कोई गृहस्थ वहां दकतीर पर चंक्रमण या स्नान करने का दकतीर पर ये दस प्रवृत्तियां करने पर प्रत्येक के लिए इच्छुक हो और वहां साधु को देखकर वह अन्यत्र जाता है लघुमास का प्रायश्चित्त है-(१) खड़े रहना (२) बैठना या साधु के पास बैठकर गोष्ठी करता है या वहीं साधु के (३) विश्राम करना (४) निद्रा लेना (५) प्रचला नींद लेना समीप ही घाट में उतरकर स्नान आदि करता है। वह जब (६) स्वाध्याय करना (७) ध्यान करना (८) आहार करना साधु के पास बैठता तब गृहस्थ को शंका होती है। गृहस्थ के (९) उत्सर्ग करना तथा (१०) कायोत्सर्ग करना। स्नान को देखकर साधु की भी स्मृति उभर आती है। २४००.सुहपडिबोहो निद्दा, दुहपडिबोहो उ निहनिद्दा य। २३९६.अन्नत्थ व चंकमती, आयमणऽण्णत्थ वा वि वोसिरइ। पयला होइ ठियस्सा, पयलापयला य चंकमओ।। कोनाली चंकमणे, परकूलाओ वि तत्थेइ॥ जिससे सुखपूर्वक जागरण होता है वह है नींद, जो महान् चंक्रमण के लिए आया हुआ कोई गृहस्थ साधु को वहां प्रयत्न करने पर टूटती है वह है निद्रानिद्रा, जो बैठे या खड़ेबैठा देखकर अन्यत्र चला जाता है। स्नान करने का इच्छुक खड़े नींद आती है वह है प्रचला और जो चलते हुए नींद व्यक्ति, व्युत्सर्जन करने का इच्छुक व्यक्ति अन्यत्र जाकर ये आती है वह है प्रचला-प्रचला। क्रियाएं करता है। कोई साधु के साथ गोष्ठी करने के लिए २४०१.संपाइमे असंपाइमे व परकूल से भी वहां आता है। इसमें जीवों की विराधना दिढे तहेव अहिटे। होती है। पणगं लहु गुरु लहुगा, २३९७.दग मेहुणसंकाए, लहुगा, गुरुगा उ मूल निस्संके। गुरुग अहालंद पोरुसी अहिया॥ दगतूर कोंचवीरग, पघंस केसादलंकारे॥ दकतीर के दो प्रकार हैं-संपातिम और असंपातिम। दृष्ट दकतीर पर साधु को देखकर गृहस्थ को यह शंका हो या अदृष्टरूप में वहां साधु यथालंद२ अर्थात् पौरुषी तक सकती है यह मैथुनार्थी किसी की प्रतीक्षा कर रहा है अथवा अथवा अधिक बैठता है तो पंचक (पांच दिन-रात), लघु, स्नान करने या पानी पीने का इच्छुक है। उदक पान की शंका गुरुमास, चतुर्लघु, चतुर्गुरु मास का प्रायश्चित्त आता है। होने पर चतुर्लघु, निःशंकित होने पर चतुर्गुरु और मैथुन की २४०२.जलजा उ असंपाती, संपातिम सेसगा उ पंचिंदी। शंका में चतुर्गुरु और निःशंकित होने पर मूल का प्रायश्चित्त अहवा मुत्तु विहंगे, होति असंपातिमा सेसा।। है। कोई गृहस्थ मज्जन करते समय पानी में दगतूर-मुख में जो जलज प्राणियों से युक्त हो वह असंपातिम दकतीर १. क्रोंचवीरको नाम पेटासदृशो जलयानविशेषः। (वृ. पृ. ६८१) २. यथालंद के तीन प्रकार हैं-(१) जघन्य यथालंद-एक युवती का गीला हाथ जितने समय में सूखे वह काल (२) उत्कृष्ट यथालंद-पूर्व कोटिप्रमाण (३) मध्यम यथालंद-इनके बीच का काल। (वृ. पृ. ६८२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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