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________________ २४२ =बृहत्कल्पभाष्यम् इसलिए नदी आदि के तट पर भी नहीं रहना चाहिए ताकि २३८९.पडिपहनियत्तमाणम्मि अंतरायं च तिमरणे चरिमं। दकतीर के आश्रय में रहने वाले प्राणी शंकित न हों। सिग्घगइतन्निमित्तं, अभिघातो काय-आयाए। २३८४.दगतीर चिट्ठणादी, जूयग आयावणा य बोधव्वा। साधु को वहां देखकर पशु प्रतिपथ से निवर्तित होते हैं लहुओ लहुया लहुया, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ तब प्यासे प्राणियों के अंतराय होती है और यदि कोई प्यास दकतीर पर बैठने, सोने आदि करने पर प्रत्येक में से मर जाता है तो क्रमशः चरम प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। लघुमास, यूपक में रहने पर चतुर्लघु तथा आतापना लेने पर साधु से भयत्रस्त होकर वे शीघ्र गति से पलायन करते हुए चतुर्लघु प्रायश्चित्त का विधान है और आज्ञाभंग आदि दोष परस्पर अभिघात करते हैं, छह काय की विराधना होती है भी होते हैं। तथा वे पशु साधु का भी घात कर सकते हैं। (वृत्तिकार ने २३८५.नयणे पूरे दिढे, तडि सिंचण वीइमेव पुढे य। एक, दो, तीन आदि पशुओं के मरने पर प्रायश्चित्त की ___ अच्छंते आरण्णा, गाम पसु-मणुस्स-इत्थीओ॥ क्रमशः वृद्धि का संकेत दिया है।) दकतीर विषयक अनेक परिभाषाएं हैं-(१) जहां से पानी २३९०.अतड-पवातो सो चेव य मग्गो अपरिभुत्त हरियादी। ले जाया जाता है वह (२) जितना स्थान नदी के प्रवाह से ओवग कूडे मगरा, जइ घुटे तसे य दुहतो वि॥ आप्लावित होता है वह (३) जहां स्थित व्यक्ति पानी को देख यदि पशु अतट अर्थात् अतीर्थ से पानी पीने उतरते हैं या सकता है वह (४) नदी का तट वह (५) जहां स्थित रहकर किसी अन्य स्थान पर कूदते हैं या वही अभिनव मार्ग है पानी सींचा जाता है वह (६) जितने भूभाग का लहरें स्पर्श जिसका उपयोग नहीं किया गया है, उससे जाते हुए करती हैं वह (७) जितना भूभाग जल से स्पष्ट होता है वह। हरियाली का छेदन होता है, अथवा अतीर्थ से प्रवेश करने आचार्य कहते हैं ये सारी दकतीर की परिभाषाएं नहीं हैं। पर वे गढ़े में गिर सकते हैं अथवा किसी शिकारी के द्वारा अरण्यक पशु, ग्रामीण व्यक्ति, गांव के पशु-मनुष्य अथवा स्थापित कूट में वे फंस सकते हैं अथवा वहां कोई मगरमच्छ स्त्रियां पानी के लिए आती हैं और साधु को वहां बैठे देखकर आदि हो तो उनको खा सकता है अथवा अन्य बस प्राणी ठहरती हैं या चली जाती हैं, वह दकतीर हैं। रहित तीर्थ में उतरकर वे पशु जितनी छूट पानी पीते हैं, उतने २३८६.सिंचण-वीई-पुट्ठा, दगतीरं होइ न पुण तम्मत्तं। चतुर्लघु प्रायश्चित्त अथवा जहां पानी भी सचित्त है और उसमें __ ओतरिउत्तरिउमणा, जहि दट्ट तसंति तं तीरं॥ त्रसकाय भी है, उस पानी की जितनी चूंट पीते हैं, उतने ही पूर्वोक्त सात आदेशों में से अंतिम तीन-सिंचन, तरंगस्पृष्ट प्रमाण में प्रायश्चित्त की वृद्धि होती जाती है। भूभाग तथा जल से स्पृष्ट भूभाग-भी दकतीर की परिभाषाएं २३९१.गामेय कुच्छियाउकुच्छिया य एक्कक्क दुट्ठऽदुट्ठा य। नहीं हैं किन्तु जहां मनुष्य और पशु पानी पीने के लिए उतरते ___दुट्ठा जह आरण्णा, दुगुंछियऽदुगुंछिया नेया॥ हैं और पानी पीकर बाहर निकल जाते हैं तथा वहां साधु को ग्रामीण पशु दो प्रकार के होते हैं-कुत्सित गर्दभ आदि स्थित देखकर भयभीत होते हैं, वह दकतीर है। और अकुत्सित-गाय आदि। प्रत्येक के दो प्रकार और हैं२३८७.अहिगरणमंतराए, छेदण ऊसास अणहियासे । दुष्ट और अदुष्ट। अरण्यक पशु भी दुष्ट-अदुष्ट, जुगुप्सित आहणण सिंच जलचर-खह-थलपाणाण वित्तासो॥ अजुगुप्सित होते हैं। दकतीर पर साधु को बैठे देखकर अधिकरण, अंतराय, २३९२.भुत्तियरदोस कुच्छिय, पडिणीय च्छोभ गिण्हणादीया। छेदन, उच्छ्रास, अनधिसह, आहनन, सिंचन, जलचर-खेचर आरण्णमणुय-थीसु वि, ते चेव नियत्तणाईया।। तथा स्थलचर प्राणियों को विभास होता है (विस्तार आगे जिस साधु ने गृहस्थ अवस्था में जुगुप्सित तिर्यक् स्त्री की गाथाओं में)। का सेवन किया था, उसको वहां आई देखकर स्मृति हो २३८८.दगुण वा नियत्तण, अभिहणणं वा वि अन्नतूहेणं।। सकती है, कोई अन्य साधु हो तो उसके मन में कुतूहल हो गामा-ऽऽरन्नपसूणं, जा जहि आरोवणा भणिया॥ सकता है। इस प्रकार भुक्त-अभुक्त दोष होते हैं। प्रत्यनीक साधु को दकतीर पर बैठा देखकर वहां पानी के लिए आने तिर्यक् स्त्री को क्षोभ हो सकता है। उसमें ग्रहण-आकर्षण वाले प्राणी लौट जाते हैं। उनका परस्पर अभिहनन होता है। आदि दोष होते हैं। आरण्यक मनुष्यों और स्त्रियों में निवर्तन, अन्य घाट पर वे पानी पीने उतरते हैं। आरण्यक पशुओं तथा अंतराय आदि दोष होते हैं। ग्रामीण पशुओं का निवर्तन होने पर छह कायों का मर्दन हो २३९३.पायं अवाउडाओ, सबराईओ तहेव नित्थक्का। सकता है। वहां आरोपणा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। __आरियपुरिस कुतूहल, आउभयपुलिंद आसुवहो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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